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Why are there so many difficulties in marriage and divorce Corona epidemic showed the way to courts


रेणुका बिष्ट


इस साल दिल्ली और केरल हाईकोर्टों ने मैरिज रजिस्ट्रेशन चाहने वालों को विडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए हाजिरी की अनुमति दी है। दूसरी ओर बांद्रा की फैमिली कोर्ट ने दुबई में फंसी पत्नी और बाली में रहने वाले पति को उनकी आपसी सहमति से तलाक लेने की इजाजत दे दी। सशरीर मौजूदगी पर जोर देने के बजाय इन बेंचों ने कपल्स के लिए अपनी अलग-अलग मर्जी पूरी करने का रास्ता आसान कर दिया। इस तरह देखा जाए तो भले ही महामारी ने शादी पर प्रशासनिक ठप्पा लगवाने वालों या तलाक के लिए अदालत के चक्कर काट रहे लोगों की मुश्किलें बढ़ाई हैं, पर इन्हीं मुश्किलों की बदौलत ऐसे उपायों को बढ़ावा मिला है जो पूरी तरह लागू हो जाएं तो भारत में शादी और तलाक लेने की प्रक्रिया में आसानी से सुधार हो सकता है।

तारीख पर तारीख
तलाक चाहने वाले जोड़ों के रास्ते से हटना, जाहिर तौर पर अदालतों के भी हित में है। निचली अदालतों में लंबित मुकदमों की संख्या पहली बार 4 करोड़ को पार कर गई है। यहां तक कि पारिवारिक अदालतें भी, जो कि 1984 में कानून बनने के बाद अस्तित्व में आई थीं और जिनका मकसद वैवाहिक मामलों के आसान और सस्ते समाधान को संभव बनाना था, अब ‘तारीख पर तारीख’ के उसी जाल में फंस गई हैं, जिसका वे हल निकालने वाली थीं।

कोरोना का साया, सुप्रीम कोर्ट में विडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए सुनवाई

सिस्टम से जुड़े जिन विलंबों के सूत्र वयस्क नागरिकों को बच्चा मानने वाली मानसिकता में मिलते हैं, उनका समाधान नागरिकों की पसंद का सम्मान सुनिश्चित करने वाली सोच में तलाशा जा सकता है। जजों को ‘विवाह संस्था की रक्षा करने और संरक्षित रखने’ की जिम्मेदारी देने वाले फैमिली कोर्ट एक्ट जैसे प्रावधान और अदालतों को वैवाहिक अधिकार बहाल करने की ताकत देने वाले स्पेशल मैरिज एक्ट असल में केस मैनेजमेंट के पीछे आम तौर पर काम करने वाले माइंडसेट का परिचय देते हैं। हालांकि इस तरह की नैतिकता बहस का विषय है, लेकिन इससे उपजी प्रक्रियागत जटिलता को लेकर कोई बहस नहीं है। दिल्ली हाईकोर्ट ने मैरिज रजिस्ट्रेशन के एक मामले में एक पक्ष को विडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए हाजिरी दर्ज करने की इजाजत 2007 में ही दे दी थी, लेकिन इस तरह के उदाहरण दुर्लभ हैं। 2017 में सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच ने चिंता जताई कि क्या विडियो कॉन्फ्रेंसिंग ‘दोनों पक्षों को सुलह के लिए राजी करने’ के अदालत के कर्तव्यपालन में रुकावट बन रही है।

यह वास्तव में अदालतों के विवाह संबंधी कार्यों के विवरण को अपडेट करने और प्रौद्योगिकी से जुड़ी कमियों को दूर करने का समय है। अगर पैतृक हस्तक्षेप आपसी सहमति वाले तलाक को भी मुश्किल बनाने लग जाएं तो विवाद वाले मामले तो यातना में बदल जाएंगे। हालांकि यहां भी सुधार बहुत सीधा है। उदाहरण के लिए, ‘न चल पाने वाले विवाह’ को कानूनी समर्थन दें, जैसा कि 1978 में और फिर 2009 में विधि आयोग ने अनुशंसित किया था। 2013 में राज्यसभा ने भी एक संशोधन विधेयक पारित करके इसकी कोशिश की थी।

एक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 22 साल से अलग रह रहे एक जोड़े को अलग करने के लिए अनुच्छेद 142 के तहत अपनी संवैधानिक शक्तियों का इस्तेमाल किया। सुप्रीम अदालत ने कहा, उसने ऐसा इसलिए किया क्योंकि ‘शादी पूरी तरह से अव्यावहारिक, भावनात्मक रूप से मृत, बचाव से परे है और अपरिवर्तनीय रूप से टूट गई है। और, इसमें ऐसा कोई कानूनी आधार नहीं था, जिस पर तलाक दिया जा सकता था।’

विवाह पक्ष में सुधार पर, इस जनवरी में इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक फैसले ने यह कहते हुए गरिमा और गोपनीयता के मौलिक अधिकारों का वजन बढ़ा दिया कि स्पेशल मैरिज एक्ट 1954 के तहत तीस दिन का नोटिस जारी करने का नियम वैकल्पिक होगा और शादी करने वाले जोड़े चाहें तो यह नोटिस जारी करने के लिए विवाह अधिकारी से अनुरोध कर सकते हैं। इसने कहा कि पर्सनल लॉ के तहत बड़ी संख्या में होने वाले विवाहों की तुलना में स्पेशल मैरिज एक्ट के तहत अपनाई जाने वाली तीस दिन की इस प्रक्रिया से कोई साफ और सही लक्ष्य प्राप्त नहीं हुआ है। अदालत ने आदेश की एक कॉपी उत्तर प्रदेश के सभी विवाह अधिकारियों को ‘तुरंत’ भेजने का निर्देश दिया। व्यक्तिगत रूप से विडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए हाजिर होने के विकल्प के साथ यह आदेश उन असुविधाओं में काफी कमी ला सकता है, जो स्पेशल मैरिज एक्ट के तहत शादी करने वालों को अभी झेलनी पड़ती हैं।

सुप्रीम कोर्ट की अहम टिप्पणी, तीन तलाक में पति के रिश्तेदार नहीं जिम्मेदार, अग्रिम जमानत देने पर कोई रोक नहीं

तलाक के मामले में साल 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि आपसी सहमति से तलाक वाले मामलों में भी छह महीने का जो ‘कूलिंग ऑफ’ पीरियड दिया जाता है, वह वक्फा अलग होने वालों का दर्द और बढ़ा देता है। फिर भी इस कूलिंग ऑफ पीरियड से छूट देने के मामले इतने कम हैं कि हेडलाइन बन जाते हैं।

व्यक्तिगत पसंद का मामला
वास्तव में तलाक की प्रक्रिया में तेजी लाने की राह में अड़चनें बहुत ज्यादा हैं। इसकी एक बड़ी वजह यह भी है कि केस में हर तारीख और हर स्थगन से वकीलों की मोटी फीस जुड़ी हुई है। ऊपर जिन बदलावों का जिक्र हुआ है, वे सही दिशा में हैं और बड़े सार्थक हैं। फिर भी इनके रफ्तार पकड़ने के लिए जरूरी है कि समाज में इस सोच को व्यापक मान्यता मिले कि शादी और तलाक व्यक्ति की अपनी पसंद से जुड़े मामले हैं। लोगों में यह भ्रम बना हुआ है कि तलाक आसान होने से विवाह संस्था कमजोर हो जाएगी। लेकिन शादी करने के इच्छुक जोड़ों को तरह-तरह से परेशान करने और तलाक लेने का फैसला कर चुके कपल्स की राह में भांति-भांति के रोड़े डालने से तो यह राय बनती है कि विवाह संस्था को बनाए रखने के लिए अंतहीन और कठोर नियंत्रण जरूरी है। ऐसी मनहूस राय की कोई जरूरत नहीं है।

डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं





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