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सलमान का संयोग या प्रयोग?
यूपी चुनाव से ठीक पहले सलमान खुर्शीद की एक पुस्तक को लेकर कांग्रेस बैकफुट पर है। कांग्रेस के कई नेता यह नहीं समझ पा रहे कि अयोध्या फैसले पर उनकी पुस्तक उसी वक्त क्यों आई जब चुनाव अधिसूचना जारी होने को है, पुस्तक पहले भी आ सकती थी और बाद में भी? इस पुस्तक में सलमान खुर्शीद ने जो भी कहा, उसके मायने यह निकाले जा रहे हैं कि उन्होंने हिंदुत्व की तुलना बोको हरम और आईएसआईएस जैसे संगठनों से की है। सलमान की तरफ से खड़ी हुई इस मुश्किल पर कांग्रेस यह नहीं समझ पा रही है कि वह चुनाव के मौके पर ही पार्टी के लिए क्यों मुश्किल खड़ी करते हैं? 2012 के यूपी विधानसभा चुनाव के मौके पर भी उन्होंने एक बड़ा विवाद खड़ा कर दिया था। उस समय वह केंद्रीय सरकार में कानून मंत्री थे। उन्होंने एक जनसभा में कहा था कि अगर राज्य में कांग्रेस की सरकार बनती है तो मुसलमानों को ओबीसी कोटे से 9 फीसदी आरक्षण दिया जाएगा। इसे बीजेपी ने मुद्दा तो बनाया ही था, चुनाव आयोग ने भी इस पर नोटिस जारी किया था। कांग्रेस को तब भी उनके इस बयान से पल्ला झाड़ना पड़ा था। यूपी के 2012 के चुनाव में कांग्रेस को कुछ हाथ नहीं लगा, उलटे 2014 के लोकसभा चुनाव में भी उसे केंद्रीय सत्ता से बाहर हो जाना पड़ा। पार्टी की आंतरिक कमिटी की रिपोर्ट में हार के जो कारण गिनाए गए थे, उनमें दो बयान भी शामिल थे, एक तो प्रधानमंत्री के रूप में मनमोहन सिंह का कि-देश के संसाधनों पर पहला कदम अल्पसंख्यकों का है और दूसरा सलमान खुर्शीद के मुसलमानों के आरक्षण वाला। कमिटी ने कहा था कि बहुसंख्यक वर्ग के बीच यह धारणा पुख्ता हो गई है कि कांग्रेस सिर्फ मुसलमानों के हक में बात करती है, बहुसंख्यक हिंदुओं के लिए उसके पास कोई विजन नहीं है। अब जब 2022 के चुनाव के मौके पर सलमान ने एक बार फिर पार्टी के लिए मुश्किल खड़ी कर दी है तो पार्टी के कई नेता ही यह सवाल पूछते दिख रहे हैं कि यह महज संयोग है या कोई प्रयोग?

​बीजेपी की दुविधा, वरुण का क्या करें?

पांच राज्यों के चुनाव की तैयारियों के बीच बीजेपी की एक इंटरनल टीम इस निष्कर्ष पर पहुंचने की कोशिश में है कि वरुण गांधी को लेकर क्या रणनीति अपनाई जाए? किसान आंदोलन से लेकर लखीमपुर हिंसा और उसके बाद अब कंगना के बयान पर वरुण गांधी की जो प्रतिक्रिया रही, पार्टी के अंदर यह माना जा रहा है कि वह साथ चलने की इच्छा रखने वाली नहीं है लेकिन पार्टी अपनी तरफ से उनको लेकर कोई प्रतिक्रिया देने की पक्षधर नहीं है। अब जब पांच राज्यों के चुनाव होने हैं, जिनमें यूपी भी शामिल है, तो यह तय करना ही होगा कि वरुण गांधी की क्या भूमिका हो? पार्टी के कुछ नेताओं की राय है कि अगर उनको बिल्कुल इग्नोर किया जाता है, उन्हें चुनावी अभियान का हिस्सा भी नहीं बनाया जाता है तो वह कहीं ज्यादा नुकसान पहुंचा सकते हैं। वह पूरी तरह से स्वतंत्र होंगे अपने विचारों को व्यक्त करने के लिए, अगर उनके खिलाफ उस वक्त कोई कार्रवाई की जाती है तो उससे और ज्यादा नुकसान होगा। इससे बेहतर है कि उन्हें पार्टी से ही बांध कर रखा जाए, उन्हें चुनाव अभियान का हिस्सा जरूर बनाया जाए। ऐसी राय के मद्देनजर पार्टी के कुछ वरिष्ठ नेता वरुण गांधी से संवाद कर सकते हैं। हालांकि पार्टी के कई ऐसे भी नेता हैं जो यह राय रखते हैं कि वरुण से पूरी दूरी बनाकर रखी जाए।

​घर बदलने से बदल जाएंगे राजनीति में राज ठाकरे के सितारे

दिवाली के मौके पर मुंबई में महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के चीफ राज ठाकरे एक नए घर में शिफ्ट हुए हैं, जिसे उन्होंने ‘शिव तीर्थ’ नाम दिया है। इससे पहले वह ‘कृष्णकुंज’ में रहा करते थे। दरअसल उनका घर बदलना इसलिए महत्वपूर्ण माना जा रहा है कि उन्होंने पिछले 25 वर्षों के दरम्यान तीन घर बदले हैं। पहले के दो घर बदलने की वजह यह कही जा रही है कि वे घर राज ठाकरे के लिए बहुत भाग्यशाली साबित नहीं हुए। राजनीति में वह अपने लिए जिस मुकाम की इच्छा रखते थे, वह तो उन्हें मिला नहीं, उलटे, वह हाशिए पर होते गए। 2019 के विधानसभा चुनाव में तो उनकी पार्टी को महज एक सीट पर ही जीत मिल पाई थी, और जो 101 उम्मीदवार उन्होंने उतारे थे, उनमें 86 उम्मीदवार जमानत भी नहीं बचा पाए। राजनीति में अहमियत जनाधार से आंकी जाती है। जाहिर सी बात है कि 2019 के विधानसभा नतीजे देखने के बाद उन्हें अप्रासंगिक मान लिया गया। राज ठाकरे फिर से महाराष्ट्र में एक बड़ी ताकत बनना चाहते हैं। चर्चा यही है कि उनका नया घर वास्तुशास्त्र के अनुसार तैयार हुआ है। पहले के दोनों घरों में जो दोष देखे गए थे, उन्हें दूर करते हुए इसे तैयार किया गया है। नए घर में शिफ्टिंग के बाद राज ठाकरे से लेकर उनके समर्थकों तक को यकीन है कि सब कुछ बेहतर होगा और आने वाले दिन अच्छे होंगे। कहा भी जाता है कि उम्मीद पर ही दुनिया कायम है। देखने वाली बात होगी कि राज ठाकरे की उम्मीदें कितना परवान चढ़ती हैं। पहली परीक्षा तो मुंबई महानगरपालिका के चुनाव में ही हो जाएगी जो कि अगले साल होने हैं। अभी मुंबई मनपा पर शिवसेना का कब्जा है।

सोरेन को भतीजियों से मिलती चुनौती

क्षेत्रीय दलों के राजनीतिक परिवारों में विरासत की लड़ाई कोई नई नहीं है। इस फेहरिस्त में पिछले दिनों झारखंड का सोरेन परिवार भी जुड़ा। पहले बात शुरू हुई सीएम हेमंत सोरेन की भाभी सीता सोरेन से। उनके पति हेमंत के बड़े भाई थे, जिनका अब निधन हो चुका है। सीता सोरेन पार्टी से लेकर सत्ता तक में जितनी हिस्सेदारी चाह रही हैं, वह उन्हें नहीं मिल रही। सो, उन्होंने बागी तेवर अपना लिए। लेकिन बात यहीं तक सीमित नहीं रही। उनकी बेटियों ने पिता के नाम पर दुर्गा सोरेन सेना गठित कर ली। कहने को यह अराजनीतिक संगठन है लेकिन इसके जरिए सीता सोरेन राज्य में समानांतर पार्टी तैयार करने की ओर कदम बढ़ा रही हैं। पहले हेमंत सोरेन को लगा था कि घर से मिल रही यह चुनौती वक्ती है लेकिन उन्हें अब यह चुनौती बढ़ती दिख रही है। इस तरह की खबरें मिल रही हैं कि दुर्गा सेना के बैनर तले राज्य में एक बड़े आयोजन की तैयारी हो रही है, जिसके लिए उन सभी लोगों से संपर्क साधा जा रहा है जो हेमंत सोरेन के विरोधी माने जाते हैं। डैमेज कंट्रोल के लिए हेमंत सोरेन ने पार्टी के उन पदाधिकारियों पर कार्रवाई भी शुरू कर दी है, जिन्हें सीता सोरेन का विश्वासपात्र माना जाता रहा है। हेमंत सोरेन को यह भी लग रहा है कि इस पूरी कवायद में सिर्फ भाभी का ही दिमाग नहीं है। उनके पीछे वे लोग काम कर रहे हैं, जो उन्हें राजनीतिक रूप से कमजोर करना चाहते हैं। भाभी और भतीजियां सिर्फ मोहरा भर हैं। शायद यही वजह है कि पिछले दिनों उनका एक बयान आया, जिसमें उन्होंने कहा कि उन ताकतों को निराशा हाथ लगेगी जो उनकी सरकार को कमजोर कर एक नया झारखंड बनाने के सपने को खंडित करना चाहते हैं। उनकी मंशा कभी भी पूरी नहीं हो पाएगी।



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By admin