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नई दिल्ली: वक्त ने करवट ली है। जिस मुल्क ने भारत पर 200 साल तक राज किया, आज उस देश का मुखिया एक भारतवंशी बन बैठा है। जिस साम्राज्य में कभी सूरज नहीं डूबता था, वह अब एक भारतीय नौजवान से चमकने की उम्मीद लगाए बैठा है। अब उसकी वो साख भी नहीं रही। ऋषि सुनक (42) ने मंगलवार को भारतीय मूल के पहले ब्रिटिश प्रधानमंत्री के रूप में कार्यभार संभाल लिया। पूरी दुनिया में रहने वाले भारतीय इस पर गर्व महसूस कर रहे हैं। पूर्व पीएम मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार रहे संजय बारू ने हमारे सहयोगी अखबार टाइम्स ऑफ इंडिया में ऋषि सुनक (Rishi Sunak) की उपलब्धि पर एक लेख लिखा है। बारू लिखते हैं कि वह ब्रिटेन जो अब ग्रेट नहीं रहा, एक ऐसा किंगडम जो काफी मुश्किल से एकजुट है, उसने अपनी अर्थव्यवस्था को दुरुस्त करने और राजनीतिक स्थिरता लाने के लिए साम्राज्य के एक नौजवान को चुना है।

यह दौर भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। भारत को ब्रिटेन से आजाद हुए 75 साल हुए हैं और भारतीय मूल के ऋषि सुनक ने ब्रिटेन के नए प्रधानमंत्री की जिम्मेदारी संभाल ली है।

ब्रिटेन में राजनीतिक उतार-चढ़ाव के बाद कंजरवेटिव पार्टी के संसद सदस्यों ने शायद शेक्सपीयर के (रिचर्ड द्वितीय) उन शब्दों को याद रखा: आज के समय में जो भी पुरानी बातें हैं उनको भूल जाइए। हम सभी को एक नए निष्कर्ष पर पहुंचने की कोशिश करनी चााहिए। जिस तरह से जब किसी मरीज को चोट लगती है तो डॉक्टर कहता है कि खून बहने का समय नहीं है और अब उसे बंद कर दिया जाए। सुनक ने शायद थॉमस बबिंगटन मैकाले (भारतीयों को अंग्रेजी माध्यम से शिक्षित करने पर जोर देने वाले) को भी गौरवान्वित किया होगा, जिनके बनाए सिस्टम ने एक ऐसे वर्ग को तैयार किया जो खून और रंग से तो भारतीय हैं लेकिन रुचि, विचारों, नैतिकता और बुद्धि में वे इंग्लिश हैं। हालांकि यह देखा जाना बाकी है कि सुनक केवल अपने वर्ग और धर्म के कारण इतिहास की किताबों में जगह पाते हैं या वास्तव में वह सबकी उम्मीदों पर खरा उतरकर सफलता हासिल करते हैं।

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ब्रिटेन राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक संकट से जूझ रहा है।

  • ब्रेग्जिट और लिज ट्रस की विचारधारा आधारित नीतियों ने अर्थव्यवस्था को बर्बाद कर दिया है।
  • पीएम के तौर पर अपने छोटे से कार्यकाल में बोरिस जॉनसन भी हालात को संभाल नहीं सके और ऐसे माहौल में भारत को आगे बढ़ने में मदद मिली और वह ब्रिटेन को पीछे छोड़कर दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया।

फिर भी ब्रिटिश संसद ने सुनक को चुनकर उदार लोकतंत्र का एक बड़ा उदाहरण पेश किया है। हालांकि नस्ल और अपने वर्ग को लेकर आसक्त इस देश ने अपने ही प्रबुद्ध विचारकों के मूल्यों को शामिल करने में लंबा वक्त लगा दिया। औपनिवेशिक साम्राज्य के प्रवासी माता-पिता की संतान और एक हिंदू ऋषि सुनक का चुनाव सांप्रदायिक होती दुनिया में नस्लीयता के लिहाज से बड़ी जीत है। अमेरिका में पहले से उपराष्ट्रपति के तौर पर कमला हैरिस जीती हैं।

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अगर सुनक के कार्यकाल के दौरान परिस्थितियां कुछ इस तरह से बनती हैं कि हैरिस वाइट हाउस पहुंच जाएं तो पूरी दुनिया में एक अलग ही जलवा दिखेगा। आयरलैंड में लियो वराडकर समेत अंग्रेजी बोलने वाले देशों की सरकारों में शीर्ष पदों पर भारतीय मूल के लोग बैठे दिखाई दे रहे हैं।

फिलहाल सुनक और उनकी राजनीतिक पार्टी का बहुत कुछ दांव पर लगा है।

  • ऐसा लगता है कि कंजरवेटिव पार्टी काफी हताशा एवं निराशा में है।
  • लेबर पार्टी अपनी पकड़ मजबूत कर रही है और ऐसा कोई जादुई आर्थिक फॉर्म्युला उपलब्ध नहीं है जो सबको संतुष्ट कर सके।
  • आर्थिक नीति को लेकर सुनक की अपनी सोच ऐसी है कि उनके लिए पहले से बंटे हुए देश को एकजुट रखना मुश्किल होगा।
  • उनका राजकोषीय अपरिवर्तनवाद ट्रस के राजकोषीय अभिजात्यवाद के विरोध में है।

निष्कर्ष साफ है कि ब्रेग्जिट एक बकवास विचार था और उसने देश को ऐसे भंवर में फंसा दिया कि अब उसे समझ में नहीं आ रहा कि इससे बाहर कैसे निकलें। यूरोप से मुंह मोड़ने के बाद ब्रिटेन को उम्मीद थी कि अमेरिका बाहें फैलाकर फ्री ट्रेड एग्रीमेंट के साथ उसका स्वागत करेगा, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। संकटग्रस्त ब्रिटेन अब हिंद-प्रशांत आधारित CPTPP समझौते में सदस्यता और भारत के साथ एफटीए चाहता है।

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बाहरी दुनिया के हिसाब से सोचें तो ब्रिटेन के नजरिए में कोई बदलाव नहीं आने वाला है। यह पश्चिमी खेमे से ही सख्ती से जुड़ा है और अमेरिका पर निर्भर रहने वाला है।… महत्वपूर्ण बात यह है कि सुनक की निजी पृष्ठभूमि के बजाय उनके पेशेवर रुख ने लोगों का दिल जीता है।

ऐसे में भले ही पूरी दुनिया में भारतीय मूल के लोग जश्न मना रहे हों लेकिन सच्चाई यही है कि ऋषि संवैधानिक रूप से अपने देश (ब्रिटेन) की सेवा करने के लिए पद पर पहुंचे हैं और उनके पास विकल्प सीमित हैं। उनकी विदेश नीति भी यूरोप, अमेरिका, रूस और चीन पर केंद्रित हैं।

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भारत के साथ डील करते समय वह चाहेंगे कि एफटीए फाइनल हो और रक्षा एवं सुरक्षा सहयोग बढ़े। मुश्किल डील आगे हो सकती है और किसी को यह उम्मीद नहीं करनी चाहिए कि सुनक सरकार के रवैये में कोई बदलाव होगा।

उपराष्ट्रपति हैरिस और प्रधानमंत्री सुनक दोनों के केस में उनके घरेलू सपोर्ट बेस में ज्यादातर दक्षिण एशियाई और नस्लीय अल्पसंख्यक हैं। बहुसंख्यकवाद के बजाय बहुसंस्कृतिवाद के राजनीतिक प्रतीकों के रूप में वे एक व्यापक सामाजिक क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं।

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By admin