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आनंद प्रधान

कोरोना महामारी की छाया में हुए तोक्यो ओलिंपिक में भारत का प्रदर्शन हमारी उम्मीदों से कम, लेकिन रियो ओलिंपिक से काफी बेहतर रहा। भारत ने कुल 7 पदक (एक स्वर्ण, दो रजत और 4 कांस्य) हासिल किए और दुनिया में उसे 48वीं पोजिशन मिली। तोक्यो में कई खिलाड़ियों ने उम्मीदों से कहीं बेहतर प्रदर्शन किया। जेवलिन थ्रो में नीरज चोपड़ा ने तो चमत्कार-सा कर दिया। लंबे अरसे बाद हॉकी की महिला और पुरुष टीमों ने नई उम्मीद जगाई, लेकिन कुल मिलाकर हम अपनी क्षमताओं से बहुत पीछे रह गए।

अगला ओलिंपिक लक्ष्य

क्या तोक्यो ओलिंपिक से यह उम्मीद जगती है कि हम 2024 के पैरिस ओलिंपिक में 50 मेडल जीतने का लक्ष्य हासिल कर पाएंगे? चौंकिए मत, नीति आयोग ने साल 2016 में एक 20 सूत्री कार्ययोजना बनाकर 2024 ओलिंपिक तक 50 पदक जीतने का लक्ष्य तय किया था। भारतीय खिलाड़ी 2016 के रियो डी जेनेरियो ओलिंपिक के बाद से ही इसके लिए कड़ी मेहनत कर रहे थे और तोक्यो ओलिंपिक में भारत की ओर से गए 120 ऐथलीटों की टीम से देश को काफी उम्मीदें थीं।

इस पर महामारी का भी असर हुआ। इसके बावजूद लग रहा था कि हमारे खिलाड़ी तोक्यो ओलिंपिक में अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करेंगे। तोक्यो में हमारे खिलाड़ियों ने यह आस पूरी की और देश का गौरव बढ़ाया। इसमें भी कोई शक नहीं कि ओलिंपिक खेलों में मेडल नहीं बल्कि खेल भावना के साथ भागीदारी करना सबसे ज्यादा मायने रखता है। भारत इन खेलों में इसी खेल और भागीदारी की भावना के साथ हिस्सा लेता आया है, लेकिन काफी हद तक यह मन बहलाने की बात भी है। ओलिंपिक खेलों की भावना यह भी है- और तेज, और ऊंचे, और मजबूत! आखिर यह खेलों की प्रतियोगिता जो है। आखिर कौन खिलाड़ी हारने के लिए मैदान या ट्रैक पर उतरता है?

हम ओलिंपिक खेलों में अपने प्रदर्शन को और तेज, और ऊंचा, और मजबूत क्यों नहीं कर पा रहे हैं? इसके लिए देश में ग्रासरूट स्तर पर विश्व-स्तरीय और आधुनिक इन्फ्रास्ट्रक्चर की कमी, प्रतिभाओं की पहचान और प्रोत्साहन के लिए जरूरी व्यवस्था का अभाव, खेलों पर केंद्र और राज्य सरकारों का मामूली खर्च और राजनीति तथा नौकरशाही में जकड़े खेल संघ जैसे कई कारण जिम्मेदार हैं। लेकिन सबसे बड़ा कारण यह है कि खेल हमारी राष्ट्रीय प्राथमिकताओं में कहीं नहीं है। खुद पूर्व खेल मंत्री राज्यवर्धन सिंह राठौर ने 2018 में लोकसभा में माना था कि भारत खेलों पर हर दिन प्रति व्यक्ति सिर्फ तीन पैसे खर्च करता है। इसकी तुलना में जमैका हर दिन प्रति व्यक्ति 19 पैसे, ब्रिटेन हर दिन प्रति व्यक्ति 50 पैसे, चीन हर दिन प्रति व्यक्ति 6.10 रुपये यानी भारत से 200 गुना ज्यादा और अमेरिका हर दिन प्रति व्यक्ति 22 रुपये यानी भारत से 733 गुना ज्यादा खर्च करता है। सवाल यह है कि हर दिन प्रति व्यक्ति सिर्फ तीन पैसे खर्च करके हम ओलिंपिक में चमत्कार की उम्मीद क्यों करते हैं?

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नीति आयोग की 2016 की एक रिपोर्ट कहती है कि भारतीय खेल प्राधिकरण जिन 26 प्रतियोगिताओं में 1676 युवा खिलाड़ियों को ओलिंपिक और दूसरी अंतरराष्ट्रीय स्पर्धाओं के लिए प्रशिक्षित कर रहा था, उन पर प्रति खिलाड़ी खर्च सिर्फ 12000 रुपये सालाना था। रही-सही कसर क्रिकेट को लेकर पागलपन की हद तक पहुंचा हमारा प्रेम पूरा कर देता है, जिसकी छाया में किसी और खेल का पनपना मुश्किल है।

इससे भी बड़ी बात यह है कि देश में खेल संस्कृति सिरे से गायब है। यहां खेल संस्कृति का मतलब यह है कि देश में खेल परिवारों और स्कूलों-कॉलेजों-दफ्तरों के दैनिक जीवन का अहम हिस्सा हो। स्वस्थ और फिट रहने के लिए खेल बच्चों-युवाओं-बूढ़ों की रोजाना की दिनचर्या में शामिल हों, खेलों को सम्मान से देखा और जरूरी समझा जाता हो। आम लोग खेलों के दर्शक और चीयरलीडर्स भर न हों बल्कि वे सक्रिय भागीदार हों। जहां ऐसी चीजें होती हैं, वहां खेल संस्कृति फलती-फूलती और आम जनजीवन का हिस्सा बनती है। इस संस्कृति में ही अच्छे खिलाड़ी पैदा होते और मेडल लाते हैं।

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हम उस देश के लोग हैं, जो ओलिंपिक में मेडल न मिलने पर खूब हायतौबा मचाते हैं, लेकिन अपने बच्चों खासकर लड़कियों को खेलने से रोकते हैं। जहां आम मध्यमवर्गीय परिवारों में बचपन से यह सिखाया जाता है कि ‘पढ़ोगे-लिखोगे, होगे नवाब; खेलोगे-कूदोगे, होगे ख़राब’, वहां मेडल जीतने वाले खिलाड़ी कहां से पैदा होंगे? आखिर हमारे कितने स्कूल-कॉलेजों में खेलों को पढ़ाई के बराबर की जगह मिलती है?

असल में, ओलिंपिक में मेडल जीतने के लिए हमें अपने टैलंट पूल को बड़ा, समावेशी (इन्क्लूसिव) और विविधतापूर्ण बनाना होगा। इसके लिए देश को अपने बच्चों और युवाओं के पोषण और स्वास्थ्य में भारी निवेश करना होगा। सामंती और पितृसत्तात्मक मानसिकता से लड़ना पड़ेगा। खेलों को खास से आम बनाना होगा। खेलों को देश के हर छोटे-बड़े शहरों, कस्बों और गांवों तक और देश के हर कोने, समुदाय और समूहों तक ले जाना होगा। खेलों को आंदोलन में बदलना होगा। यह देश में खेल संस्कृति को प्रोत्साहित किए बिना संभव नहीं है।

प्राथमिकता बदले

यही नहीं, खेल संस्कृति के लिए यह भी उतना ही जरूरी है कि सरकारें हाइवे-हवाई अड्डे-बिजलीघर-मेट्रो जैसे इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट की योजनाएं बनाते हुए उतनी ही शिद्दत के साथ देश के शहरों और गांवों के क्लस्टरों में खुले पार्क, जिम, खेल के मैदान, स्टेडियम और प्रशिक्षण अकादमियां बनाना अनिवार्य करें। हो यह रहा है कि शहरों और कस्बों से लेकर स्कूलों-कॉलेजों-यूनिवर्सिटियों में खेल के मैदान और पार्क सबसे पहले रीयल एस्टेट और इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रॉजेक्टस की भेंट चढ़ रहे हैं। खेल के मैदान और पार्क बनाना और उनका रख-रखाव करना हमारे नगर और जिला प्रशासन की प्राथमिकताओं में सबसे नीचे है।

ऐसे में, हमें मेडल ला सकने वाले खिलाड़ी नहीं मिल रहे हैं और ओलिंपिक में हमारा प्रदर्शन निराशाजनक बना हुआ है तो इसे लेकर हम हैरान क्यों होते हैं?

डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं





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