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how does EC decide who gets the symbol: When parties split, how does EC decide who gets the symbol? know everything about how Election Commission decide of symbol when party part away: LJP का चुनाव चिन्‍ह फ्रीज… पार्टी टूटने पर इलेक्‍शन कमीशन कैसे-किसे देता है सिंबल? समझ‍िए नियम-कायदे


नई दिल्‍ली
बिहार में दो विधानसभा सीटों पर उपचुनाव से पहले चुनाव आयोग (ECI) ने शनिवार को एक अहम फैसला किया। उसने लोक जन शक्ति पार्टी (LJP) के पार्टी सिंबल (चुनाव चिन्‍ह) को फ्रीज कर दिया। LJP के नाम या उसके चुनाव चिह्न ‘बंगले’ का इस्तेमाल करने पर तब तक रोक लगाई गई है जब तक कि आयोग प्रतिद्वंद्वी गुटों के बीच विवाद का निपटारा नहीं कर देता। यानी चिराग पासवान और पशुपति कुमार पारस दोनों खेमे इसका तब तक इस्‍तेमाल नहीं कर पाएंगे। बिहार की जिन दो विधानसभा सीटों पर उपचुनाव होने हैं, उनमें तारापुर और कुशेश्‍वर स्‍थान शामिल हैं। दोनों सीटों पर 30 अक्‍टूबर को वोटिंग होनी है।

इस साल जून में एलजेपी दो धड़ों में बंट गई थी। तब पार्टी के छह सांसदों में से पांच ने चिराग के नेतृत्‍व को स्‍वीकारने से मना कर दिया था। चिराग की जगह उनके चाचा पशुपति कुमार पारस ने पार्टी की कमान अपने हाथों में ले ली थी। इकलौते बचे चिराग को बाहर का रास्‍ता दिखाया गया था। लोक जन शक्ति पार्टी के संस्‍थापक राम विलास पासवान के निधन के बाद से ही चाचा-भतीजे के बीच तलवारें खिंची हुई हैं।

हाल में पार्टी टूटने के दो और प्रमुख मामले देखने को मिले हैं। इनमें भी इलेक्‍शन सिंबल पर विवाद हुआ था। दोनों मामले 2017 के हैं। समाजवादी पार्टी में ‘साइकिल’ और एआईएडीएमके में ‘दो पत्तियों’ वाले चुनाव चिन्‍ह पर जमकर विवाद हुआ था। जब पार्टी बिखरती है तो चुनाव आयोग कैसे डिसाइड करता है कि किसे सिंबल मिलेगा। खासतौर से यह देखते हुए कि पार्टी की पहचान उस सिंबल से जुड़ी होती है। वोटरों के साथ पूरा कनेक्‍शन इसी पर निर्भर करता है। आइए, यहां इस पूरे मामले को समझते हैं।

LJP के चुनाव चिन्‍ह को इलेक्‍शन कमीशन ने किया फ्रीज, चिराग-पशुपति दोनों नहीं कर सकेंगे इस्‍तेमाल
पार्टी टूटने पर इलेक्‍शन सिंबल पर EC के पास क्‍या हैं शक्तियां?
अगर पार्टी टूटती है तो किसे चुनाव चिन्‍ह मिलेगा, इसे लेकर संविधान में व्‍यवस्‍था है। सिंबल्‍स ऑर्डर 1968 के पैरा 15 में इसका उल्‍लेख मिलता है। यह कहता है कि जब आयोग इस बात से संतुष्‍ट हो जाए कि दो गुटों में पार्टी की दावेदारी को लेकर विवाद है तो आयोग का फैसला अंतिम माना जाएगा। वह इस बारे में फैसला ले सकता है। राष्‍ट्रीय और राज्‍य स्‍तर की मान्‍यता प्राप्‍त पार्टियों में विवाद होने पर यह नियम लागू होता है। जो पार्टियां पंजीकृत हैं लेकिन मान्‍यता प्राप्‍त नहीं हैं, उनके मामले में आयोग गुटों को समझा सकता है।

सिंबल ऑर्डर से पहले ऐसे मामले कैसे डील करता था EC?
1968 से पहले आयोग कंडक्‍ट ऑफ इलेक्‍शन रूल्‍स के तहत नोटिफिकेशन और एग्‍जीक्‍यूटिव ऑर्डर जारी करता था।

1968 से पहले कब-कब पड़ी जरूरत?
1968 से पहले पार्टी टूटने का सबसे बड़ा मामला 1964 में हुआ था। तब सीपीआई टूटी थी। इनमें से एक खेमे ने सीपीआई (एम) बनाने की गुहार लगाई थी। आयोग ने इसकी मंजूरी दे दी थी।

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1968 ऑर्डर आने के बाद पहला ममला कौन सा था?
1969 में इंडियन नेशनल कांग्रेस (INC) बंटी थी। यह कांग्रेस (O) और कांग्रेस (J) में टूटी थी। कांग्रेस (O) की अगुवाई एस निजलिंगप्‍पा कर रहे थे। वहीं, कांग्रेस (J) की कमान इंदिरा गांधी के हाथों में आई थी। पुरानी कांग्रेस (O) के पास बैल की जोड़‍ियों का सिंबल रहा था। वहीं, नई कांग्रेस को गाय और बछड़ा सिंबल मिला था।

पुराना पार्टी सिंबल नहीं मिलने वाले गुट के साथ क्‍या होता है?
आयोग ने 1997 में इसे लेकर नियम बदले थे। नए नियमों के तहत नए गुट (पुराने चुनाव चिन्‍ह वाले गुट से हटकर बनी पार्टी) को अपने को अलग पार्टी के तौर पर रजिस्‍टर करने की जरूरत पड़ती है। रजिस्‍ट्रेशन के बाद राज्‍य और केंद्र के चुनाव में उसका जैसा प्रदर्शन होता है, उसी के आधार पर वह नेशनल या स्‍टेट पार्टी का स्‍टेटस क्‍लेम कर सकती है।



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