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सुमंत विद्वांस
आज हिन्दी दिवस है, इसलिए कई लोगों को अचानक याद आएगा कि हिन्दी हमारी अपनी भाषा है। उनका हिन्दी-प्रेम अचानक उमड़ पड़ेगा और फिर वे वर्णन करेंगे कि हिन्दी कितनी प्यारी, कितनी महान, कितनी प्राचीन, कितनी समृद्ध, कितनी मीठी और कितनी लोकप्रिय भाषा है।

कई लोगों को अचानक यह चिंता भी सताने लगेगी कि अंग्रेज़ी और ऊर्दू के अतिक्रमण से हिन्दी सिकुड़ रही है और धीरे-धीरे समाप्त हो रही है। स्वयं को कुछ अधिक बुद्धिजीवी समझने वाले लोग अपनी यह वार्षिक शिकायत दोहराएंगे कि सरकार हिन्दी के प्रति उदासीन है और हिन्दी के उत्थान के लिए कुछ भी नहीं कर रही है। ऐसी बड़ी-बड़ी बातें करके और हिन्दी की महानता का बखान करके शाम तक वे हिन्दी-दिवस को भी भूल जाएंगे और हिन्दी को भी अगली 14 सितंबर तक भुला देंगे।

ऐसे सारे महात्माओं, महिषियों, विद्वानों, विदुषियों और हिन्दी के मौसमी समर्थकों से मेरा अनुरोध है कि वे हिन्दी के लिए यदि सचमुच चिंतित हैं, तो सरकारों की पहल के लिए प्रतीक्षा करने और हिन्दी के बारे में उपदेश झाड़ने की बजाय वे हिन्दी के विस्तार के लिए स्वयं से शुरुआत करें। जैसे-

  1. सोशल मीडिया पर अपने प्रोफ़ाइल में नाम अंग्रेज़ी से बदलकर हिन्दी में लिखें (हिन्दी न जानने वालों की सुविधा के लिए आप कोष्ठक में अंग्रेज़ी में भी रख सकते हैं)।
  2. अपने सभी सोशल मीडिया खातों की भाषा बदलकर हिन्दी करें। कुछ समय तक आपको सब अटपटा लग सकता है क्योंकि अंग्रेज़ी में फेसबुक देखने की आदत हो चुकी है। लेकिन दो-चार दिनों में इसकी आदत पड़ जाएगी और आपको फिर इसी में ज्यादा मज़ा आएगा। इसी तरह अपनी अधिकांश पोस्ट भी हिन्दी में लिखा करें।
  3. अपने मोबाइल फोन की सेटिंग्स में भाषा वाले विकल्प में जाएं और अंग्रेज़ी को बदलकर हिन्दी करें। अपने ईमेल/जीमेल की अकाउंट सेटिंग्स में जाएं और भाषा बदलकर हिन्दी करें।
  4. जब कभी एटीएम मशीन पर पैसे निकालने जाएं, तो मशीन का उपयोग करते समय हिन्दी भाषा चुनें।
  5. जब किसी से कॉल पर बात हो, तो हैलो की बजाय नमस्कार कहें।
  6. जब भी किसी कंपनी के कॉल सेंटर को कॉल करते हैं, तो भाषा के विकल्प में हिन्दी चुनें और वहां के कर्मचारी से हिन्दी में बात करें।

हिन्दी दिवस

इन सब कामों के पैसे नहीं लगते, लेकिन इनसे हिन्दी का उपयोग बढ़ता है और उपयोग करने वालों की संख्या बढ़ती है। इससे हिन्दी की लोकप्रियता और महत्व बढ़ता है, जिससे हिन्दी में नए रोज़गार सृजित होंगे।

हिन्दी में रोज़गार मिलने लगेगा, तो नई पीढ़ी खुद हिन्दी सीखने लगेगी और हिन्दी का प्रचार होने लगेगा। तब आपको किसी सरकार से यह कहने नहीं जाना पड़ेगा कि वह हिन्दी के लिए कुछ करे, बल्कि सरकारें खुद ही हिन्दी के लिए काम करने लगेगी क्योंकि सरकारें वही करती हैं, जिससे वोटर खुश हो सके।

मैं अमेरिका में, आयरलैंड में, सिंगापुर में, थाईलैंड में और अन्य देशों में जहां भी, जब भी भारतीयों से मिलता हूं, तो उनसे हिन्दी में बात करता हूं। वे अंग्रेज़ी में बात शुरू करते हों, तो भी मैं जानबूझकर हिन्दी में ही जवाब देता हूं। इससे उनकी भी झिझक मिटती है और वे भी खुशी-खुशी हिन्दी में बोलने लगते हैं। जिनको कई सालों से विदेश में रहने के कारण अब हिन्दी बहुत अच्छी नहीं आती, वे भी टूटी-फूटी हिन्दी बोलने का प्रयास करते हैं।

जब मैं विदेशों में भी ऐसे प्रयास कर सकता हूं, तो आप भारत में क्यों नहीं कर सकते? कारण ये है कि आप खुद ही हिन्दी बोलने में झिझकते हैं, आप खुद ही इस मनोवैज्ञानिक दबाव में रहते हैं कि अंग्रेज़ी न बोलने पर सामने वाला आपको अनपढ़ समझेगा। जब आपमें खुद आत्मविश्वास नहीं है, तो स्वाभाविक है कि सामने वाला न आपकी बातों से प्रभावित होगा, न भाषा से।

एक भाषा के रूप में अंग्रेज़ी अवश्य सीखिए, लेकिन यह याद रखिए कि अंग्रेज़ी बुद्धि का पैमाना नहीं है। जहां आवश्यक हो, वहां अंग्रेज़ी मैं भी बोलता हूं और मुझे मालूम है कि मैं उसमें गलतियां भी करता हूं। लेकिन मैं उसकी चिंता नहीं करता क्योंकि अंग्रेज़ी मेरी भाषा नहीं है। इसलिए उसमें मैं गलतियां करूं, तो मुझे कोई शर्म नहीं है। मुझे इस बात की चिंता भी नहीं होती कि अंग्रेज़ी न बोलने पर सामने वाला मुझ पर हंसेगा। विदेशियों से मैं अंग्रेज़ी में ही बोलता हूं, लेकिन कोई भारतीय अगर अंग्रेज़ी न बोलने पर मुझे गंवार समझे, तो मैं शर्मिंदा नहीं होता, बल्कि मन ही मन उसकी बुद्धि पर तरस खाता हूं। मैं अंग्रेज़ी में सामने वाले को अपनी बात समझा लेता हूं और उसकी समझ लेता हूं, इतना काफी है। शर्म मुझे तब महसूस होगी, अगर मैं अपनी भाषा ठीक से न बोल पाऊं या समझ न पाऊं।

अगर आपको अपनी भाषा का उपयोग करने में शर्म या झिझक महसूस होती है, तो पहले खुद में सुधार कीजिए। सरकार से सवाल बाद में कीजिए। अगर आपको अपनी भाषा के उपयोग में शर्म या झिझक नहीं महसूस होती है, तो कम से कम ऊपर लिखी 6 बातों का खुद पालन कीजिए और दूसरों को भी इसकी प्रेरणा दीजिए।

अगर आप इन दोनों में से कुछ भी नहीं करते हैं, और सिर्फ सोशल मीडिया पर कोरी बातें लिखकर इस भ्रम में हैं कि आप हिन्दी के प्रचार में भारी योगदान कर रहे हैं, तो इस भ्रम से यथाशीघ्र बाहर निकल जाइए क्योंकि हिन्दी का भला तो दूर, आप खुद का भी कुछ भला नहीं कर रहे हैं।

जिन लोगों को वर्ष में केवल एक ही बार हिन्दी की चिंता होती है, उन सबको मेरा सुझाव है कि हिन्दी पर कोई अहसान न करें। आपके होने न होने से हिन्दी भाषा को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है। हिन्दी भाषा या आपकी मातृभाषा पूरी तरह मिट भी जाए, तो भी उस भाषा को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है।

लेकिन भाषा नष्ट होने से आपकी संस्कृति, आपकी धरोहर, आपका इतिहास, आपकी पहचान और आपका अस्तित्व नष्ट होने वाला है। आपके समान ही आपकी समस्त भावी पीढियां भी स्थायी रूप से मानसिक गुलामी में जीने को अभिशप्त होने वाली हैं।

आपको चिंता करनी है तो भाषा की चिंता मत कीजिए, अपने जीवन के हर कार्य में उस भाषा का उपयोग करने और अपने बच्चों को उस भाषा से जोड़ने की चिंता कीजिए।

हिन्दी दिवस

संकट आपकी भाषाओं के अस्तित्व पर नहीं है, संकट आपके और आपकी भावी पीढ़ियों के अस्तित्व पर है। इसलिए आपको चिंता करनी है तो अपनी और भावी पीढ़ियों की चिंता कीजिए, आपको अहसान करना है तो स्वयं पर और अपनी भावी पीढ़ियों पर कीजिए। हिन्दी पर कोई अहसान मत कीजिए।

हिन्दी को या भारत की किसी भी भाषा को किसी भी सरकार के या किसी भी नागरिक के उपकार की आवश्यकता नहीं है।

जिस देश में दस प्रतिशत लोग भी ढंग से अंग्रेजी नहीं बोल सकते, वहां की राजभाषा आज भी अंग्रेजी है और भारतीय भाषाओं को श्रद्धांजलि देने के लिए हिन्दी दिवस जैसे आयोजन किए जाते हैं, यह गर्व की नहीं गुलामी की निशानी है।

जहां सरकारें अपना सारा कामकाज आधिकारिक रूप से एक विदेशी भाषा में करती हैं और लोग अंग्रेजी की अधकचरी जानकारी का प्रदर्शन रोज एक दूसरे को नीचा दिखाने में करते हैं, वहां हिन्दी दिवस जैसे आयोजन केवल हमारे समाज की दयनीय दशा और दोगलेपन के प्रतीक भर हैं।

यह बात मेरी समझ से परे है कि भारत की संसद में और भारत सरकार के कामकाज में अंग्रेजी की बैसाखी क्यों आवश्यक है? भारत के अनेक राज्यों में आज भी अंग्रेजी ही उस प्रदेश की मुख्य या सहायक राजभाषा क्यों है? बंगाल की राजभाषा केवल बांग्ला और तमिलनाडु की केवल तमिल क्यों नहीं है?

यह भी समझ से परे है कि आम आदमी को अपने दैनिक जीवन के अधिकांश कार्यों में भी अंग्रेजी की अनावश्यक निर्भरता क्यों उचित लगती है? आपका फोन अंग्रेजी में क्यों है? एटीएम मशीन में आप अंग्रेजी भाषा क्यों चुनते हैं? सोशल मीडिया पर आपका नाम आपकी भाषा में क्यों नहीं लिखते? छोटे छोटे कस्बों और गांवों तक में चाय के ठेलों और पान की दुकानों तक के नाम अंग्रेजी में क्यों लिखे जाते हैं? क्या इसके लिए भी सरकार दोषी है या आप खुद गुलाम हैं?

जिस दिन लोग वर्ष में एक बार हिन्दी दिवस की निरर्थक औपचारिकता पूरी करने की बजाय अपनी भाषा के महत्व को समझेंगे, उस दिन के बाद से उन्हें हिन्दी या किसी भी भारतीय भाषा के भविष्य की चिंता नहीं करनी पड़ेगी।

अंग्रेजों की विदाई के बाद से ही हर राज्य के शासक वर्ग ने हमेशा इस बात का ध्यान रखा है कि लोग हर बात को सरकार की ही जिम्मेदारी मानें और हर बात के लिए सरकारों पर ही आश्रित रहें, ताकि सरकारें अपनी सुविधा के अनुसार चलती रहें और बड़ी बड़ी बातों से लोगों को बेवकूफ बनाती रहें।

मेरी बातें कड़वी लग सकती हैं, लेकिन अक्सर गंभीर बीमारियों में कड़वी दवाएं ही काम आती हैं। इसलिए इन बातों पर विचार करके फिर बैठ मत जाइए, बल्कि इन्हें अपनाइए और कुछ बड़ा परिवर्तन करके दिखाइए। और हां, कुछ करने के बाद यहां भी बताइए, ताकि औरों को भी प्रेरणा मिले। सादर!

(लेखक स्वतंत्र लेखक और अनुवादक हैं।)

डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं





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