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प्रभाष जोशी, वरिष्ठ पत्रकार
दिल्ली के तख्त पर इंदिरा गांधी लौट आई थीं और ज्ञानीजी को अपने मंत्रिमंडल में गृहमंत्री बना लिया था। इंदिरा जी ने दूसरे राज्यों के साथ पंजाब की भी सरकार को बर्खास्त किया और राष्ट्रपति शासन लगा दिया। अब कायदे से तो राष्ट्रपति शासन राष्ट्रपति का होना चाहिए और उनके प्रतिनिधि के नाते पूरा प्रशासन राज्यपाल के जिम्मे होना चाहिए। लेकिन आप जानते हैं कि केंद्र राज्यपालों से कैसा बर्ताव करता है और इंदिरा गांधी के राज में तो मुख्यमंत्री की हैसियत ही चपरासी से ऊंची नहीं होती थी तो बेचारे मनोनीत राज्यपाल तो कहीं पासंग में नहीं आते थे। पंजाब के राज्यपाल तब जयसुखलाल हाथी हुआ करते थे। संविधान और कायदे कानून के न सिर्फ जानकार थे बल्कि राजकाज उसी के अनुसार चलाने के आग्रही थे। एक दिन राज्यपाल जयसुखलाल हाथी ने लंच के लिए बुलाया। काफी बातचीत हो जाने के बाद अपन ने जानने की कोशिश की कि पंजाब का प्रशासन कैसा चल रहा है और अकालियों ने उसका जो अकालीकरण किया है तो उसे डिसमेंटल करना कितना मुश्किल हो रहा है? उनका दुख प्रशासन से नहीं था। प्रशासन में ज्ञानी दखलअंदाजी से था।

वे कुछ ही दिन पहले पंजाब के किसी कस्बे से किसी कार्यक्रम से लौटे थे। वहां ज्ञानीजी बीएसएफ का जहाज ले कर पहुंच गए थे। सिर्फ इसलिए कि पंजाब सर्विस कमिशन में उन्हें एक ऐसे व्यक्ति को मनोनीत करवाना था जो उनका कारकून, पीए या ऐसा ही कुछ रह चुका था जब वे पंजाब के मुख्यमंत्री थे। ऐसा नहीं था कि जयसुखलाल हाथी ने किसी और का नाम तय कर रखा था और ज्ञानीजी उसे हटवाकर अपने आदमी को लगवाना चाहते थे और यह राज्यपाल को बुरा लग रहा हो। पुराने जमाने के उन राज्यपाल को यह अजीब ही नहीं आपराधिक लग रहा था कि देश का गृहमंत्री अपने किसी पुराने और वफादार कर्मचारी को पब्लिक सर्विस कमिशन का सदस्य बनवाने के लिए सरकारी विमान ले कर आए और राज्यपाल के पीछे पड़े कि उसे बनवा ही दो। सार्वजनिक सुविधाओं और पदों का यह सरासर दुरुपयोग था। इससे राज्यपाल हाथी गुस्से और भर्त्सना में नहीं जैसे आंतरिक पीड़ा में थे।

और भी किस्से थे ज्ञानी के
लेकिन यह तो शायद ताजा किस्सा रहा होगा। गृह मंत्रालय यानी ज्ञानीजी की और भी दखलंदाजी रही होगी रोजमर्रा के प्रशासन में जो राज्यपाल हाथी को न गृहमंत्री के योग्य लगती होगी न अपने पद की शोभा के अनुकूल क्योंकि मुझसे जो उनने कहा वह तो बहुत ही संयम से की गई शिकायत नहीं, अपनी पीड़ा की अभिव्यक्ति थी। उनने सचमुच प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के नाम एक लंबी चिट्ठी लिख रखी थी जिसमें सुझाया गया था कि राष्ट्रपति शासन का मतलब केंद्र का सीधा शासन होना चाहिए और उसमें राज्यपाल की वही भूमिका होनी चाहिए जो निर्वाचित सरकार के होते हुए होती है। राज्यपाल के नाम से गृहमंत्री का दिल्ली से शासन चलाना राज्यपाल की संवैधानिक गरिमा और संविधान के अनुसार नहीं है। मैं नहीं जानता कि जयसुखलाल हाथी ने वह पत्र फाइनल किया या नहीं और इंदिरा जी को भेजा या नहीं। लेकिन आजादी के पहले के दो कांग्रेसी नेताओं की बनावट और उनके रवैये का फर्क उस दिन समझ में आया।

फिर एक रात ऐसा हुआ कि हमारे विशेष संवाददाता और बुजुर्ग बीके चम अचानक और बड़े बेवक्त आ धमके। उनकी बड़ी बेटी की तब शादी हो रही थी और उनका चेहरा देख कर लगा कि कहीं गड़बड़ न हो गई हो। चम साब ने अकेले में बात की और राहत मिली कि मामला ऐसा गड़बड़ नहीं था। लेकिन चम साब चिंतित और उत्तेजित। उस दिन ज्ञानीजी चंडीगढ़ आए थे और चम साब को दुल्हन के लिए शगुन में इतना पैसा पहुंचा गए थे कि तब के हिसाब से वह लेन-देन के व्यवहार से कहीं ज्यादा अनुग्रह राशि नहीं तो शादी में मदद की रकम जरूर लगती थी। ज्ञानीजी जब पंजाब के मुख्यमंत्री हुआ करते थे तो चम साब नेशनल हेरल्ड के विशेष संवाददाता थे और ज्ञानीजी उन्हें अपनी पार्टी के अखबार वाले के नाते झुमाए रखते थे और चम साब को अच्छा नहीं लगता था। उस दिन भी उन्हें लगा कि ज्ञानीजी उन्हें या तो रिश्वत दे गए हैं या गरीब मान के मदद कर गए हैं। बात उन्हें ऐसी खटक रही थी कि रात भर वे सो नहीं सकते थे। आखिर हमने तय किया कि इक्यावन रुपए रख कर बाकी पैसे चम साब खुद जा कर सम्मान और विनम्रतापूर्वक ज्ञानीजी को लौटा आएंगे। ज्ञानीजी से संबंध बिगाड़ने में भी कोई मतलब नहीं था और उनकी मदद लेने की तो कतई कोई जरूरत नहीं थी।

राष्ट्रपति बनाने की वजह
उनके गृहमंत्री रहने के ढाई साल के दौरान इंदिरा जी को समझ में आ गया था कि ज्ञानी जैलसिंह को दिल्ली से पंजाब की राजनीति करने दी गई तो वे न सिर्फ दरबारा सिंह को सरकार नहीं चलाने देंगे बल्कि पंजाब की समस्या का हल असंभव कर देंगे। उन्हें राजनीति से काटने और रायसीना के टीले पर किसी अल्पसंख्यक को बैठाने के लिए इंदिरा गांधी ने ज्ञानी जैलसिंह को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया। सन् बयासी में कांग्रेस और इंदिरा जी की ताकत पर्याप्त थी कि किसी को भी राष्ट्रपति बनवा दें। ज्ञानी जैलसिंह को राजनीति से काटने के लिए इंदिरा गांधी ने राष्ट्रपति बनाया लेकिन ज्ञानीजी ने राष्ट्रपति भवन का ही राजनीतिकरण कर दिया। राजनीति के बिना ज्ञानी जैलसिंह रह नहीं सकते थे। ज्ञानीजी भले ही पढ़े-लिखे अंग्रेजी दां न रहे हों लेकिन पंथनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य और भारत नामक राष्ट्र राज्य के बुनियादी सिद्धांत और चरित्र की उन्हें न सिर्फ सहज समझ थी बल्कि उनमें अटूट आस्था भी थी। इसीलिए राजीव गांधी को उन्होंने इंदिरा गांधी की हत्या के बाद प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलवाई। जैसे उन्होंने इंदिरा जी का अहसान उतारा हो। बाद की घटनाओं से साबित भी हुआ कि दोनों में एक-दूसरे के लिए कोई सम्मान नहीं था।

(स्वर्गीय प्रभाष जोशी की पुस्तक ‘जीने के बहाने’, प्रकाशक राजकमल से साभार)

डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं





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