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अशोक पाण्डे

जौनपुर के शायर असगर मेहदी ‘होश’ का शेर है- क्या सितम करते हैं मिट्टी के खिलौने वाले/ राम को रक्खे हुए बैठे हैं रावण के करीब। दशहरे की शुरुआत राम और रावण के बीच फर्क कर पाने की तमीज सिखाने के लिए की गई होगी। व्यापक जनमानस में रामकथा के एक क्लासिक के तौर पर स्थापित होने के बाद से ही राम और रावण क्रमशः अच्छाई और बुराई के प्रतीक बन गए। रावण पर राम की विजय का उत्सव दशहरा मानव समाज की इन दो विरोधी भावनाओं के बीच चलने वाले शाश्वत युद्ध पर एक निर्णायक वक्तव्य है। अच्छाई हमेशा बुराई को पराजित करेगी, असत्य का पर्दे के पीछे छिपा सत्य हमेशा सामने आएगा।

रावण तेरे कितने रूप

मेरा बचपन उत्तराखंड के नगर अल्मोड़ा में बीता। यहां का दशहरा बहुत खास होता है। उस दिन यहां न सिर्फ रावण का पुतला फूंका जाता है, उसके साथ उसके तमाम साथियों के पुतले भी आग के हवाले किए जाते हैं। पिछले कुछ बरसों से यहां कुल मिलाकर 28 पुतले फूंके जाते रहे हैं जिनमें अहिरावण, कुंभकर्ण, मेघनाद, प्रहस्त, ताड़का और देवांतक जैसे मिथकीय चरित्र शामिल हैं।

इन पुतलों को बनाने में बहुत मेहनत की जाती है और एक पुतला दो से तीन महीने में बन पाता है। इस परंपरा पर ‘द बर्निंग पपेट्स’ नाम से एक डॉक्यूमेंट्री भी बन चुकी है। शहर के हर पुराने मोहल्ले की अपनी पुतला समितियां हैं। यह पहले से तय रहता है कि कौन सा मोहल्ला किस पुतले को बनाएगा। इनके निर्माण में जो चाहे हिस्सा ले सकता है। जौहरी बाजार में कुंभकर्ण बनेगा तो धारानौला में प्रहस्त। रावण का पुतला नगर के सबसे संपन्न मोहल्ले लाला बाजार में बनता है और वही सबसे शानदार दिखाई देता है। दशहरे के दिन फूंके जाने से पहले समूचे नगर में इन पुतलों का जुलूस निकाला जाता है।

अल्मोड़ा की रामलीला बहुत विख्यात है। यूनेस्को की एक रपट में डेढ़ सौ बरस से होती आ रही इस रामलीला को वैश्विक सांस्कृतिक विरासत का हिस्सा बताते हुए इसे अयोध्या, बनारस, सतना और मधुबनी की रामलीलाओं के समकक्ष रखा गया है। अल्मोड़ा के ऐतिहासिक हुक्का क्लब में रामलीला की तैयारी महीनों पहले शुरू हो जाती है। इसे तालीम कहा जाता है। प्रसंगवश रामलीला के साथ तालीम जैसा उर्दू शब्द इसलिए जुड़ा कि शुरुआती वर्षों में कलाकारों की संगत के लिए दिए जाने वाले संगीत के निर्माण में अल्मोड़ा आ कर बस गए मुसलमान संगीतकारों का बड़ा हाथ होता था। रामलीला की तालीम के दौरान पात्रों की वेशभूषा और आभूषणों पर अलग से काम किया जाता था।

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राम को सदैव निश्छल दिखाया जाना होता था इसलिए कोई सुदर्शन किशोर ही राम की भूमिका के लिए छांटा जाता। कोई किशोर हद से हद दो या तीन साल तक ही राम का रोल कर सकता था क्योंकि फिर उसकी मूंछें आनी शुरू हो जाती थीं। रावण की भूमिका तय रहती थी। नगर का कोई विशालकाय अभिनेता इस काम को बीस-पचीस सालों तक किया करता था। राम की पोशाक के सामने रावण की पोशाक बेहद भव्य, महंगी और आकर्षक हुआ करती थी। बंदर की भूमिका करने वाला बच्चा भी मन ही मन एक बार उस पोशाक को धारण करने का सपना देखता था। रावण के हिस्से ही सारे हिट संवाद आते थे और उसी को देखने सबसे बड़ी भीड़ जुटा करती।

रामलीला के राम और रावण के पात्रों की यह कथा देश की तकरीबन हर रामलीला पर लागू हो सकती है। राम के मुकाबले रावण को हमेशा अपराजेय और चमत्कारी दिखना चाहिए। राम की कथा और उससे जुड़ी परंपराओं को उनके रस्मी अर्थों से इतर सांकेतिक रूप से देखेंगे तो पाएंगे कि संसार में रावणों का राज्य रहा है। उनकी सफलता के किस्से समाचारों की सुर्खियां बनते हैं। आपको हर जगह वे ही सत्ता में दिखाई देंगे। कोई आश्चर्य नहीं कि सुशासन को रामराज्य का नाम दिया जाता है और वह हमेशा एक अमूर्त और अवास्तविक चीज बना रहता है।

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सूचना क्रांति के इस संक्रमण काल में जब छद्म सूचनाओं और समाचारों से बाजार पटा हुआ है, रावण का रूप और भी विराट और आधुनिक हुआ है। वह बाजार का सबसे बड़ा चेहरा बन चुका है। चमचम करते बाजारों की संरचनाओं के चेहरों पर उसकी दर्प भरी मुस्कान छपी हुई है। दुनिया के सबसे तेज दिमाग उसकी सत्ता को मजबूत बनाने में दिन-रात मेहनत में लगे हुए हैं। कहीं युद्ध की तैयारी है, कहीं मिसाइलों के बाजार सजे हैं।

विज्ञापन के रथ पर सवार रावण की सवारी दिन में सौ दफा निकलती है जिसका सीधा प्रसारण निर्धन झुग्गियों तक पहुंचाया जा चुका है। दिन भर रिक्शा खींचने, हाड़ गलाने वाला एक मजदूर शाम को घर पहुंचता है तो उसके थैले में नून-तेल-आटे के अलावा प्लास्टिक के रैपर में लिपटा कुछ न कुछ ऐसा जरूर होता है जो उसके बच्चे मांगते हैं। प्लास्टिक के उस गैरजरूरी रैपर के बगैर आज के समाज की कल्पना करना मुश्किल लगता है।

राम के आदर्शो की जरूरत

पैसे की चौंध और आधुनिकता के नकली सिद्धांतों ने राम के आदर्शों को सर के बल खड़ा कर दिया है। एक सिद्धांत के रूप में राम का बताया मार्ग एक अनुकरणीय जीवन दर्शन तो हो सकता है लेकिन वैसा जीवन जीना कोई नहीं चाहता। हर किसी को रावण बनना है, हर किसी को रावण की वही चमचम करती पोशाक चाहिए जिसे पहन वह सार्वजनिक रूप से अट्टहास कर सके। संक्षेप में कहें तो हर बीतते दिन के साथ स्थितियां खराब से खराब होती जा रही हैं। अमीरी और गरीबी के बीच का फासला बढ़ता जा रहा है। अंग्रेजी कवि विलियम बटलर येट्स की एक कविता का संदर्भ दूं तो संसार में जो सबसे भले हैं वे पराजित हैं जबकि सबसे बुरों के पास जीने को लेकर सबसे ज्यादा उत्साह और उल्लास है। अमीर कजलबाश की तरह मैं भी दशहरे के इस दिन बस इतनी सी दुआ ही कर सकता हूं, ‘तेरे बच्चे प्यासे हैं, इन पौधों को पानी दे/ रावण रात जगाता है कोई राम-कहानी दे।’

डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं





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