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data on religion-based economic discrimination in India


लेखक: अमिताभ कुंडु और खालिद खान
हमारे सहयोगी अखबार द टाइम्स ऑफ इंडिया (ToI) के 7 जुलाई के संस्करण में सुरजीत भल्ला ने ‘अल्पसंख्यक रिपोर्टः भारतीय मुसलमानों के बारे में बने मिथक से पर्दा उठाते आंकड़े‘ नाम से एक लेख लिखा। भल्ला ने इस लेख में दलील दी कि कैसे भारत में धर्म के आधार पर कोई आर्थिक भेदभाव नहीं होता है। उन्होंने अपनी दलील के समर्थन में हिंदुओं और मुसलमानों की औसत मजदूरी दरों का हवाला दिया। भेदभाव आंकने की उनकी इस पद्धति में काम की प्रकृत्ति, आमदनी, ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में स्थान के अंतर पर विचार नहीं किया गया। ऊपर से दोनों धार्मिक समूहों के अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) के श्रमिकों को मिला दिया गया।

इस मुद्दे पर अलग-अलग पहलू से और अधिक विश्लेषण की जरूरत है। यह देखना महत्वपूर्ण है कि भल्ला ने आंकड़ों के विश्लेषण से जो परिणाम निकाले वो अन्य उपलब्ध परिणामों के साथ कैसे मेल खाते हैं या उनसे कितने अलग हैं। लेबर मार्केट में किस धर्म के व्यक्ति को किस तरह का काम मिलता है और वो कितना कमा पाता है, इस आधार पर अंतर का विश्लेषण भी होना चाहिए। हालांकि, अंतर केवल भेदभाव के कारण ही नहीं होते हैं। इसके दो घटक हैं- पहला, पृष्ठभूमि के कारण और दूसरा, भेदभाव के कारण। शहरी परिवेश में शैक्षिक स्तर, औपचारिक अनुभव, पारिवारिक पृष्ठभूमि (व्यक्तित्व विकास का एक कारक) आदि के मामले में मुसलमान, हिंदुओं के मुकाबले पिछड़ सकते हैं। इस कारण मुसलमानों की कमाई भीं हिंदुओं के मुकाबले कम हो सकती है।

भेदभाव होता है? भारतीय मुस्लिमों के बारे में सबसे बड़ा झूठ, हिंदुओं से ज्‍यादा मिलती रही है पगार
1. नियमित रोजगार में भेदभाव पर ध्यान केंद्रित करना उचित होगा जहां आय और काम करने की स्थिति बेहतर है। साथ ही, जहां भर्तियों के वक्त एंप्लॉयर के लिए व्यक्तिगत और सामाजिक पूर्वाग्रहों के आधार पर निर्णय लेने की गुंजाइश होती है। 15 से अधिक आयु वर्ग के लिए उपलब्ध नियमित रोजगार में मुसलमानों का अनुपात 32% है, जबकि हिंदुओं के लिए यह 50% है। एससी/एसटी के आंकड़ों को यहां बाहर रखा गया है क्योंकि मुसलमानों में इस वंचित आबादी का एक छोटा सा हिस्सा है (कानूनी रूप से मुसलमानों को एससी या एसटी नहीं माना जा सकता है) जबकि हिंदुओं के बीच उनकी हिस्सेदारी अधिक है। अगर ऐसा नहीं किया गया तो सही आंकड़े नहीं आ पाएंगे और भेदभाव की जमीनी वास्तविकता सामने नहीं आ पाएगी।

द इंडियन डिस्क्रिमिनेशन रिपोर्ट, ऑक्सफैम 2022 में कहा गया है कि वर्ष 2004-05 में मुसलमानों के नियमित रोजगार में 59% की कमी भेदभाव की भावना के कारण हुई। यह 2019-21 में 68% के खतरनाक स्तर पर पहुंच गया। वहीं, नियमित रूप से काम करने वाले लोगों की कमाई में अंतर भी चिंता का विषय है। आंकड़ों के मुताबिक, हिंदू महीने में औसतन 21,822 रुपये कमाता है तो मुसलमान की औसत मासिक आमदनी 15,458 रुपये है। गणितीय (Oaxaca Blinder) मॉडल की स्टडी से पता चलता है कि 2019-21 में हिंदू-मुसलमानों में 7% वेतन के अंतर का कारण भेदभाव था।

2. मुसलमानों के एक बड़े वर्ग का अपना रोजगार है। इसके लिए उनका साबका सरकारी संस्थानों और अधिकारियों के साथ-साथ आम लोगों से बार-बार पड़ता रहता है। स्वरोजगार से जुड़े कुल श्रम बल में 49 प्रतिशत हिस्सेदारी मुसलमानों की है जबकि हिंदुओं की 41 प्रतिशत। ये आंकड़े वर्ष 2020-21 में शहरी क्षेत्रों के हैं। इसके मुताबिक, मुसलमान प्रति माह औसतन 12,473 रुपया कमाता है, जो हिंदुओं के औसतन 16,521 रुपये से कम है।12% मामलों में यह अंतर भेदभाव के कारण होता है। हालांकि, मुसलमानों के लिए स्व-रोजगार तक पहुंच में कोई भेदभाव नहीं है क्योंकि ज्यादातर अपना रोजगार करने वाले गरीब लोग होते हैं।

शहरों में रोजगार ज्यादा प्रतिस्पर्धी है क्योंकि वहां रोजगार देने वाले को नौकरी मांगने वाले की जाति या उसके धर्म से शायद ही कोई मतलब होता है। फिर भी, एक मुस्लिम दिहाड़ी मजदूर प्रति दिन औसतन 371 रुपये कमाता है तो हिंदुओं के लिए यह आंकड़ा औसतन 403 रुपये का है। केजुअल एंप्लॉयमेंट में मुसलमानों और हिंदुओं की हिस्सेदारी क्रमशः 28% और 19% है। जाहिर है, शहरों में रोजगार दिए जाने में कोई भेदभाव नहीं होता है। यहां मुसलमानों की कम आमदनी का आधार भेदभाव नहीं बल्कि काबिलियत होता है।

ग्रामीण क्षेत्रों में लेबर मार्केट का सिस्टम पूरी तरह अलग है। यहां मुसलमान गैर-कृषि गतिविधियों में शामिल हैं। वो ऐसे रोजगार करते हैं जिनमें उनका लोगों से राब्ता नहीं के बराबर होता है। वे चमड़ा उद्योग, पारंपरिक शिल्प, मरम्मत और रखरखाव, निर्माण आदि जैसे विशेष व्यवसायों में हैं जहां हिंदू श्रमिकों के साथ प्रतिस्पर्धा अपेक्षाकृत कम है। अनुसूचित जाति यानी दलित परिवार तो कुछ ना कुछ संख्या में हर गांव में पाए जाते हैं, लेकिन मुसलमान कुछ राज्यों, जिलों और गांवों तक केंद्रित हैं। इस कारण भेदभाव का दायरा कम हो जाता है।

नियमित रोजगार को छोड़ दें तो ग्रामीण क्षेत्रों में अलग-अलग तरह के रोजगार के मौकों और कमाई में अंतर का आधार काबिलियत होती है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि आकलन के इस मॉडल में परिवार से प्राप्त कौशल, अनुभव और शिल्प कौशल शामिल नहीं हैं। यह परिवार के भीतर से कौशल प्राप्त करने वाले मुसलमानों को नुकसान में डालता है, क्योंकि इस मॉडल में उनकी कम कमाई का कारण उनका कम कौशल होता है न कि भेदभाव।

भल्ला ने भेदभाव के बेहद महत्वपूर्ण मुद्दे को परखा है, जिसे देश के विकास गाथा में लगातार नजरअंदाज किया गया है। इसके लिए लोगों को अलग-अलग विश्लेषण के परिणामों का इंतजार करना पड़ता है। चुनौतीपूर्ण क्षेत्रों की पहचान और उनके लिए केंद्र और राज्य के स्तर से जरूरी योजनाओं के लागू किए जाने के बाद ही ‘सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास’ के सपने को पूरा किया जा सकता है। इस सपने में आखिरी पंक्ति में खड़ी महिलाएं भी शामिल हैं।

अमिताभ कुंडु अहमदाबाद स्थित एलजे यूनिवर्सिटी में मानद प्रफेसर हैं जबकि खालिद खान इंडियन इंस्टिट्यूट फॉर दलित स्टडीज में असिस्टेंट प्रफेसर हैं। दोनों इंडिया डिस्क्रिमिनेशन रिपोर्ट 2022 से जुड़े हैं।



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