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congress president election 1939 when mahatma gandhi supported pattabhi sitaramayya defeated by subhash chandra bose


नई दिल्ली : लंबे समय के इंतजार के बाद अगले महीने कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव होने जा रहा है। अगर पार्टी के सर्वोच्च पद के लिए एक से ज्यादा दावेदार रहें तो 17 अक्टूबर को कांग्रेस के 9 हजार से ज्यादा पीसीसी डेलिगेट्स अध्यक्ष पद के लिए वोट करेंगे। 19 अक्टूबर को नतीजे घोषित होंगे। फिलहाल ऐसी अटकलें हैं कि शशि थरूर अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ सकते हैं। वह कांग्रेस के असंतुष्ट कहे जाने वाले नेताओं के समूह ‘G-23’ के सदस्य हैं। हालांकि, थरूर का कहना है कि अगले एक-दो हफ्ते में वह अपनी उम्मीदवारी को लेकर फैसला करेंगे। कांग्रेस के 137 सालों के इतिहास में अबतक 61 नेता पार्टी की बागडोर संभाल चुके हैं।

1885 में कांग्रेस की स्थापना के बाद से ही कुछ अपवादों को छोड़कर ज्यादातर बार पार्टी अध्यक्ष का निर्विरोध चुनाव हुआ है। जब भी वोटिंग की नौबत आई, आपसी कड़वाहट बढ़ी, बड़े विवाद उभरे। नवभारतटाइम्स.कॉम पर हम कांग्रेस अध्यक्ष के लिए हुए ऐसे ही बहुचर्चित चुनावों पर एक खास सीरीज शुरू करने जा रहे हैं। पहली कड़ी में बात 1939 के कांग्रेस अध्यक्ष चुनाव की जिसमें एक तरफ थे महात्मा गांधी समर्थित उम्मीदवार पट्टाभि सीतारमैया तो दूसरी तरफ थे नेताजी सुभाष चन्द्र बोस। बोस जीत तो गए लेकिन गांधी और उनके समर्थकों से बढ़ती दूरी और कड़वाहट की वजह से उन्हें इस्तीफा देना पड़ा।

अध्यक्ष पद के लिए गांधी की पहली पसंद थे मौलाना आजाद
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस 1938 में कांग्रेस के निर्विरोध अध्यक्ष चुने गए। 1939 में मध्य प्रदेश के जबलपुर स्थित त्रिपुरी गांव में कांग्रेस का अधिवेशन होना था। महात्मा गांधी चाहते थे कि अबुल कलाम आजाद त्रिपुरी अधिवेशन की अध्यक्षता करें। इसके पीछे उनकी सोच ये थी कि अगर कांग्रेस का अध्यक्ष कोई मुस्लिम बनता है तो सांप्रदायिक सौहार्द के लिहाज से अच्छा संदेश जाएगा। उस समय हिंदू और मुसलमानों के बीच खाई बढ़ रही थी जिसे ब्रितानी हुकूमत भी हवा देने में कोई कसर नहीं छोड़ रही थी। लेकिन पेच फंस गया। सुभाष चन्द्र बोस ने भी अपनी उम्मीदवारी का ऐलान कर दिया।

उधर बारडोली में कांग्रेस वर्किंग कमिटी की बैठक में मौलाना अबुल कलाम आजाद की उम्मीदवारी का ऐलान कर दिया गया। हालांकि बाद में उन्होंने अपनी उम्मीदवारी वापस ले ली। गांधी के जोर देने के बाद भी वह सुभाष चन्द्र बोस के खिलाफ चुनाव नहीं लड़ना चाहते थे। वजह ये कि दोनों कलकत्ता से आते थे और वहां नेताजी की लोकप्रियता दिन दुनी, रात चौगुनी बढ़ती ही जा रही थी। वह नहीं चाहते थे कि बंगाल के ही दो लोगों में अध्यक्ष पद के लिए मुकाबला हो।

मौलाना आजाद पीछे हटे तो नेहरू को अध्यक्ष देखना चाहते थे गांधी
मौलाना आजाद के पीछे हटने के बाद गांधीजी ने जवाहर लाल नेहरू को चुनाव लड़ने के लिए राजी करने की कोशिश की। उन्होंने नेहरू को लिखा, ‘मौलाना साहब कांटों भरा ताज नहीं पहनना चाहते हैं। अगर आप कोशिश करना चाहते हैं तो कीजिए। अगर आप भी चुनाव नहीं लड़ते हैं या वह (सुभाष चन्द्र बोस) नहीं सुनते हैं तो पट्टाभि ही इकलौते विकल्प दिख रहे हैं।’ वैसे रविंद्रनाथ टैगौर की इच्छा थी कि कोई आधुनिक सोच का नेता कांग्रेस की कमान संभाले। वह सुभाष चन्द्र बोस या फिर जवाहर लाल नेहरू को इस पद पर देखना चाहते थे। उन्होंने महात्मा गांधी को खत भी लिखा कि सुभाष को दूसरा कार्यकाल दिया जाना चाहिए। लेकिन बापू नहीं माने।

पट्टाभि सीतारमैया की उम्मीदवारी और बोस से पीछे हटने की अपील
नेहरू के भी इनकार के बाद महात्मा गांधी ने आंध्र प्रदेश से आने वाले पट्टाभि सीतारमैया का नाम तय किया। 29 जनवरी 1939 को चुनाव होना था। वोटिंग से कुछ दिन पहले सरदार बल्लभ भाई पटेल समेत कांग्रेस वर्किंग कमिटी के 7 सदस्यों ने संयुक्त बयान जारी कर नेताजी सुभाष चन्द्र बोस से चुनाव लड़ने के अपने फैसले पर पुनर्विचार की अपील की ताकि पट्टाभि सीतारमैया निर्विरोध अध्यक्ष चुने जाए। गांधीजी चाहते थे कि नेहरू भी संयुक्त बयान पर दस्तखत करें लेकिन उन्होंने दस्तखत नहीं किया। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने पटेल और वर्किंग कमिटी के अन्य सदस्यों के बयान पर आपत्ति जताई। उन्होंने कहा कि जब चुनाव में दो सहयोगी आमने-सामने हों तब वर्किंग कमिटी के सदस्यों का सार्वजनिक तौर पर किसी एक का पक्ष लेना ठीक नहीं है।

वोटिंग हुई और बोस ने गांधी समर्थित पट्टाभि को दी मात
आखिरकार 29 जनवरी को कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए वोटिंग हुई। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के पक्ष में 1580 वोट पड़े जबकि सीतारमैया को 1377 वोट। बोस को बंगाल, मैसूर, यूपी, पंजाब और मद्रास से जबरदस्त समर्थन मिला। लगातार दूसरी बार कांग्रेस अध्यक्ष का ताज उनके सिर सजा।

पट्टाभि की हार को गांधी ने अपनी हार बताने से बढ़ी कड़वाहट
चुनाव से पहले ही कांग्रेस नेताओं में कड़वाहट घुल चुकी थी। चुनाव के बाद महात्मा गांधी के एक बयान से यह कटुता और बढ़ गई। उन्होंने सार्वजनिक तौर पर कह दिया कि पट्टाभि सीतारमैया की हार ‘उनसे ज्यादा मेरी हार’ है। गांधी ने अपने बयान में कहा, ‘…मुझे उनकी (सुभाष चन्द्र बोस की) जीत से खुशी है…और चूंकि मौलान आजाद साहिब के नाम वापस लेने के बाद मैंने ही डॉक्टर पट्टाभि को चुनाव से पीछे नहीं हटने को कहा था लिहाजा उनकी हार उनसे ज्यादा मेरी हार है।’

कांग्रेस के दिवंगत नेता और पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने अपनी किताब ‘The Coalition Years’ में उस दुर्भाग्यपूर्ण घटना का जिक्र किया है। उन्होंने लिखा है, ‘हालांकि, सीतामरमैया को गांधीजी और दूसरे तमाम बड़े नेताओं का समर्थन हासिल था लेकिन बोस युवाओं में बहुत ज्यादा लोकप्रिय थे और उन्होंने बहुत उत्साह के साथ उनका समर्थन किया। सुभाष चन्द्र बोस ने शानदार जीत हासिल की। लेकिन गांधीजी ने सीतारमैया की हार को अपनी हार बता दिया जिससे बहुत अजीब स्थिति पैदा हुई। 1930 के दशक के आखिर में गांधीजी और बोस के रिश्तों में दरार कांग्रेस के इतिहास का एक बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण अध्याय है।’

कांग्रेस के इतिहास का अफसोसनाक चैप्टर
सुभाष चन्द्र बोस दोबारा कांग्रेस अध्यक्ष तो बन गए लेकिन कांग्रेस वर्किंग कमिटी में गांधी समर्थकों का ही दबदबा था। चुनाव बाद कड़वाहट और भी ज्यादा बढ़ गई। मार्च 1939 में जबलपुर के नजदीक त्रिपुरी में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन होना था। उससे पहले 21-22 फरवरी को वर्धा में कांग्रेस वर्किंग कमिटी की मीटिंग प्रस्तावित थी। संयोग से सुभाष चन्द्र बोस उस समय बीमार थे और उन्होंने पटेल को टेलिग्राम भेजकर वर्किंग कमिटी की मीटिंग को वार्षिक अधिवेशन तक के लिए टालने का अनुरोध किया। उन्होंने गांधीजी को भी एक टेलिग्राम भेजकर नई गठित होने वाली वर्किंग कमिटी के सदस्यों को अपने हिसाब से नॉमिनेट करने का अनुरोध किया। लेकिन उन्होंने वर्किंग कमिटी के लिए कोई भी नाम नहीं सुझाया।

…मुझे उनकी (सुभाष चन्द्र बोस की) जीत से खुशी है…और चूंकि मौलान आजाद साहिब के नाम वापस लेने के बाद मैंने ही डॉक्टर पट्टाभि को चुनाव से पीछे नहीं हटने को कहा था लिहाजा उनकी हार उनसे ज्यादा मेरी हार है।

पट्टाभि सीतारमैया की हार पर महात्मा गांधी

वर्किंग कमिटी के सदस्यों ने बोस के खिलाफ खोल दिया मोर्चा
बोस की तरफ से अपनी अस्वस्थता की वजह से वर्किंग कमिटी की मीटिंग को टालने के लिए भेजा गया टेलिग्राम सरदार पटेल समेत ज्यादातर सदस्यों को बहुत नागवार गुजरा। उन्होंने बोस के खिलाफ यह कहकर मोर्चा खोल दिया कि इसमें उनकी ‘तानाशाही’ झलक रही है। वह ये तक नहीं चाहते कि उनकी गैरमौजूदगी में पार्टी सामान्य कामकाज भी निपटा सके। 8 फरवरी को सरदार पटेल ने राजेंद्र प्रसाद को खत लिखकर कहा कि बोस के साथ बतौर वर्किंग कमिटी मेंबर काम करना मुमकिन नहीं है। बोस ने अपनी तरफ से हर मुमकिन कोशिश की कि पार्टी के भीतर टकराव को रोका जाए। यहां तक कि अस्वस्थता के बावजूद वर्किंग कमिटी की मीटिंग से पहले 15 फरवरी को वह वर्धा पहुंचकर गांधीजी से व्यक्तिगत तौर पर मिले लेकिन तनाव कम नहीं हुआ। आखिरकार 20-21 फरवरी को वर्धा में कांग्रेस वर्किंग कमिटी की बैठक हुई जिसमें बीमार होने की वजह से बोस शामिल नहीं हो पाए। सरदार पटेल समेत वर्किंग कमिटी के दर्जनभर सदस्यों ने नेताजी पर तानाशाही का आरोप लगाते हुए इस्तीफा दे दिया।

तीखी जुबानी जंग
चुनाव के बाद गांधी और बोस समर्थकों में तीखी जुबानी जंग देखने को मिली। गांधी समर्थकों ने बोस की नेतृत्व क्षमता पर सवाल उठाया। उनके नेतृत्व को ‘छेद वाली नाव’ करार दिया। उनके पूर्व के एक बयान को लेकर उनसे माफी की मांग की। दरअसल, सुभाष चन्द्र बोस ने एक बार गांधी के अनुयायियों को कम बौद्धिक स्तर (Low Intellectual level) वाला करार दिया था।

त्रिपुरी अधिवेशन में बोस की बीमारी का उड़ाया गया मजाक
सुभाष चन्द्र बोस की अस्वस्थता के बीच ही कांग्रेस का त्रिपुरी अधिवेशन, 1939 शुरू हुआ जो 8 से 12 मार्च तक चला। महात्मा गांधी ने उससे दूरी बना ली और वह राजकोट चले गए। अधिवेशन के दौरान पूरे 5 दिनों तक माहौल में कड़वाहट ही घुली रही। बीमार होने की वजह से नेताजी सुभाष चन्द्र बोस अधिवेशन में स्ट्रेचर पर पहुंचे। कटुता का अंदाजा इसी से लगा सकते हैं कि बोसविरोधी खेमे के एक कांग्रेसी ने यहां तक कह दिया, ‘चेक किया जाना चाहिए कि कहीं वह कांख के नीचे कोई प्याज तो नहीं रखे है।’ इस तरह बोस की बीमारी तक का मजाक उड़ाया गया। दरअसल, मान्यता है कि कांख में प्याज दबा लेने से शरीर का तापमान बढ़ जाता है जिससे दूसरों को ये लगता है कि शख्स बुखार से तप रहा है।

हंगामेदार रहा अधिवेशन, राजेंद्र प्रसाद के कपड़े तक फाड़ डाले गए
त्रिपुरी अधिवेशन में कांग्रेस की अंदरूनी कलह और गुटबाजी खुलकर सामने आई। यहां तक कि दोनों गुटों के समर्थक आमने-सामने आ गए। जेबी कृपलानी ने तो अपनी आत्मकथा ‘माई टाइम्स’ में यहां तक दावा किया कि त्रिपुरी अधिवेशन में बोस के बंगाली समर्थकों ने राजेंद्र प्रसाद पर हमले की कोशिश की और उनके कपड़े फाड़ डाले। खुद उनके ऊपर भी हमला हुआ लेकिन उनकी बंगाली पत्नी सुचेता ने किसी तरह उन्हें बचाया।

…और बोस ने कांग्रेस छोड़ दी
त्रिपुरी अधिवेशन के अगले ही महीने अप्रैल 1939 में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने न सिर्फ कांग्रेस अध्यक्ष पद से बल्कि पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से भी इस्तीफा दे दिया। 3 मई 1939 को उन्होंने कलकत्ता की एक रैली में फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना का ऐलान किया और इस तरह उनकी राह कांग्रेस से अलग हो गई।



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