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डॉ. दीपा सिन्हा


नैशनल फैमिली हेल्थ सर्वे (एनएफएचएस-5) की ताजा रिपोर्ट आने के बाद से यह चर्चा शुरू हो गई है कि क्या देश की आबादी सचमुच बढ़ने के बजाय अब घटने लगी है? दरअसल, पिछले हफ्ते आई इस रिपोर्ट के मुताबिक देश का टोटल फर्टिलिटी रेट 2.2 के पिछले रेट से घटकर 2.0 हो गया है। गौरतलब है कि फर्टिलिटी रेट 2.1 रहे तो माना जाता है कि आबादी कमोबेश स्थिर रहती है। चूंकि देश में राष्ट्रीय प्रजनन दर 2.0 पर आ गई है, यानी बैलेंसिंग रेट से भी नीचे चला गया है तो कुछ हलकों में ऐसी चिंता भी जताई जाने लगी है कि देश की आबादी अब बढ़ने के बजाय कहीं घटने न लगी हो।

आंकड़ों की सचाई
इस बारे में समझने वाली पहली बात तो यह है कि नैशनल फैमिली हेल्थ सर्वे की रिपोर्ट और जनगणना के आंकड़ों में फर्क होता है। जनगणना में देश की पूरी आबादी शामिल रहती है जबकि एनएफएचएस के दायरे में रिप्रॉडक्टिव उम्र के लोग ही आते हैं। इसलिए एनएफएचएस की रिपोर्ट को उतना प्रामाणिक नहीं माना जाता, जितना सेंसस के आंकड़े माने जाते हैं। इसके बावजूद इन आंकड़ों की सचाई में संदेह नहीं किया जा सकता। वजह यह कि ये आंकड़े ऐसी कोई बात नहीं कह रहे, जो अप्रत्याशित हो। इससे पहले की तमाम रिपोर्टों में यह बात आती रही है कि देश में फर्टिलिटी रेट कम हो रहा है। इसलिए मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि एनएफएचएस-5 के आंकड़े देश की वास्तविक स्थिति ही दिखा रहे हैं। फिर भी फर्टिलिटी रेट के 2.1 से जरा सा नीचे जाने का यह मतलब नहीं है कि देश की आबादी तत्काल प्रभाव से कम होने लगेगी। इसकी वजह यह कि भले लोग बच्चे कम पैदा करें, लेकिन रिप्रॉडक्टिव एज में लोग अभी ज्यादा हैं। इसलिए देश की जनसंख्या तुरंत कम नहीं होगी। हां, यह जरूर है कि अगर यह ट्रेंड जारी रहा तो कुछ वर्षों में पीक पर पहुंचने के बाद आबादी कम होने लगेगी। मगर यह कोई नई या अनोखी बात नहीं है। ऐसा होता है। दुनिया के अलग-अलग देशों में देखा गया है, आबादी पहले तेजी से बढ़ती है, उसके बाद इसकी रफ्तार कम होने लगती है और फिर धीरे-धीरे वह बिंदु आता है जहां से आबादी घटने लगती है।

क्या घटेगी आबादी, जानें क्या है NFHS-5 की रिपोर्ट के मायने

ऐसे में आबादी बढ़ने-घटने का हिसाब लगाने से ज्यादा जरूरी यह समझना है कि अगले कुछ वर्षों में देश में ऐसी स्थिति आएगी जब युवा आबादी का प्रतिशत कम होगा और बुजुर्गों की तादाद ज्यादा होगी। यानी जिसे हम डैमोग्राफिक डिविडेंड कहते रहे हैं, वह खत्म हो जाएगा। अगर देश में काम करने वाले लोगों की संख्या कम होगी और उस पर निर्भर आबादी ज्यादा होगी, तो जाहिर है उन सबकी जरूरतें पूरी करने, उनके लिए पेंशन आदि का इंतजाम करने जैसी चुनौतियां सामने आएंगी। ये आनी ही हैं। इनसे निपटने के लिए अलग तरह की तैयारियां चाहिए। लेकिन इस ओर सोचने का काम अभी अपने यहां शुरू भी नहीं हुआ है।

हमारे यहां इस मसले को अक्सर चीन के ही संदर्भ में देखा और समझा जा रहा है। यानी जैसे चीन ने पहले आबादी की तेजी से बढ़ती रफ्तार से निपटने के लिए वन चाइल्ड पॉलिसी अपनाई और फिर कम होते फर्टिलिटी रेट के चलते ज्यादा बच्चे पैदा करने पर जोर दे रहा है। तो क्या हमें भी बदले हालात में अपनी नीतियों की दिशा बदलनी चाहिए वगैरह-वगैरह। इन सवालों पर जाने से पहले हमारे लिए यह देखना जरूरी है कि एनएफएचएस-5 के आंकड़े अपने ही देश के अलग-अलग राज्यों की भिन्न स्थितियां दर्शा रहे हैं। साउथ के राज्यों में जहां फर्टिलिटी रेट कम हो रहा है, वहीं नॉर्थ के राज्यों में अभी भी ज्यादा है। तो आबादी घटने या युवा और वृद्ध आबादी का अनुपात बदलने की जो स्थिति है वह पहले साउथ में दिखेगी, उत्तर के राज्यों में तब भी आबादी बढ़ रही होगी। इस परस्पर विरोधी स्थिति से हम कैसे निपटेंगे, यह भी हमें सोचना है।

देश में पहली बार पुरुषों के मुकाबले महिलाओं की संख्‍या ज्‍यादा, क्‍या हैं इसके मायने?

सर्वे रिपोर्ट का एक पॉजिटिव पहलू यह है कि सेक्स रेशियो बदल रहा है। इन आंकड़ों के मुताबिक प्रति हजार पुरुषों पर 1020 महिलाएं पाई गई हैं। खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में अंतर और ज्यादा है। पहली नजर में यह निश्चित रूप से स्वागत योग्य डिवेलपमेंट कहा जाएगा। लेकिन थोड़ी बारीकी में जाएं तो तस्वीर पूरी तरह साफ होने के लिए कई और तरह के आंकड़ों की जरूरत है जो अभी सामने नहीं आए हैं। मसलन, ग्रामीण इलाकों में महिलाओं की ज्यादा संख्या का सच समझने के लिए हमें पलायन से जुड़े आंकड़ों पर भी नजर डालनी होगी। काम की तलाश में गांव छोड़कर शहर जाने वालों में कितने पुरुष हैं और कितनी महिलाएं, यह साफ होना जरूरी है। दूसरी बात यह कि छह साल से कम उम्र के बच्चों में अभी भी लड़कियों की संख्या लड़कों के मुकाबले कम है, जो चिंता की बात होनी चाहिए।

चीन के प्रयोग
जहां तक चीन की तर्ज पर आबादी घटाने या बढ़ाने को लेकर सरकारी नीतियों का सवाल है तो यह समझना चाहिए कि दोनों ही गलत हैं। सरकार का काम यह सोचना है ही नहीं कि कौन कितने बच्चे पैदा करे। यह लोग तय करेंगे। सरकार का काम यह देखना है कि जो आबादी है उसके लिए स्वास्थ्य और शिक्षा का अच्छा इंतजाम है या नहीं। दूसरे शब्दों में सरकार यह तय नहीं कर सकती कि कौन कितने बच्चे पैदा करे, लेकिन अच्छी शिक्षा का इंतजाम करके लोगों को इस स्थिति में ला सकती है कि वे सभी पहलुओं पर विचार करते हुए सही फैसला कर सकें। वैसे चीन समेत कई ऐसे देश हैं जहां लोगों को ज्यादा बच्चे पैदा करने के लिए प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से टैक्स में छूट और लंबी मैटर्निटी लीव जैसे कदम उठाए गए हैं। मगर भारत में फिलहाल ऐसी स्थिति नहीं आई है। उसमें अभी थोड़ा टाइम है।

(प्रस्तुति : अक्षय शुक्ला)

डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं





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