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प्रो. राम मोहन पाठक

शिक्षक दिवस की परंपरा का यह हीरक जयंती वर्ष है। विख्यात शिक्षाविद्, तत्कालीन उपराष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्म दिवस (5 सितंबर) को राष्ट्रीय स्तर पर शिक्षक दिवस की मान्यता प्रदान करते हुए 1962 से यह परंपरा शुरू हुई। 60वें शिक्षक दिवस हमारे लिए आत्म विवेचना का अवसर भी होना चाहिए। आखिर शिक्षक दिवस की सार्थकता क्या है? शिक्षा-शिक्षक-शिक्षार्थी के संदर्भ में इस दिवस के आयोजन का जो मूल संकल्प या लक्ष्य था, क्या उस लक्ष्य तक पहुंचने में हम थोड़ा भी सफल हुए हैं?

शिक्षक दिवस के मूल संकल्प में यह समाहित है कि समाज में शिक्षक को समुचित सम्मान और महत्व प्राप्त हो। ‘हैपी टीचर्स डे’ के संदेशों या नारों से कहीं आगे वास्तविक जीवन में और 15 लाख से अधिक देश की प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च शिक्षा संस्थाओं में शिक्षकों को वह सम्मान, जीवन और जीविका के उत्कृष्ट साधन और समादर प्राप्त हो। इस संकल्प के पीछे प्रेरणापुरुष डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन का शिक्षक व्यक्तित्व रहा है। तमिलनाडु की राजधानी मद्रास (अब चेन्नै) से उत्तर पश्चिम में स्थित ‘मंदिरों के गांव’ तिरुत्तणि से चलकर देश के शीर्ष संवैधानिक पद तक पहुंचे राधाकृष्णन का जीवन शिक्षकों के लिए ही नहीं, सभी वर्गों और पूरे विश्व के लिए आदर्श है। एक आदर्श तत्वचिंतक, दार्शनिक, विद्वान सर्वपल्ली ने मद्रास के कॉलेज से अपनी शिक्षक भूमिका शुरू की और मैसूर विश्वविद्यालय, कलकत्ता विश्वविद्यालय और एशिया के सबसे बड़े काशी हिंदू विश्वविद्यालय के कुलपति के रूप मे ऐतिहासिक योगदान किया। वह दर्शन की कक्षाएं लेते, व्याख्यान देते जिन्हें सुनने के लिए दूर-दूर से देशी-विदेशी जिज्ञासु पहुंचते थे। व्याख्यान हॉल के बाहर श्रोताओं की भीड़ इकट्ठा हो जाती।

अंग्रेज सरकार ने विश्वविद्यालय को बंद करने के लिए अपनी पूरी ताकत झोंक दी। लेकिन उन्होंने काशी हिंदू विश्वविद्यालय में अंग्रेजों के प्रवेश और कब्जे के अंग्रेजी शासकों के मंसूबे पर पानी फेर दिया। वर्तमान में शिक्षकों के लिए राधाकृष्णन का व्यक्तित्व और उनका योगदान तीन रूपों में प्रेरक और स्मरणीय है- उनकी अध्येता वृत्ति, पूर्व-पश्चिम के जीवन दर्शन की उनकी विशेष व्याख्या और उनका संवादी व्यक्तित्व। राधाकृष्णन कभी राजनीति में सक्रिय नहीं रहे और जीवन के अंतिम क्षण तक अपना पेशा ‘शिक्षक’ ही लिखते रहे। शिक्षकवृत्ति के प्रति उनके आग्रह और निरंतर अध्ययन में संलग्नता को विश्व स्तर पर जो सम्मान मिला वह आज के शिक्षक वर्ग के लिए सर्वथा आदर्श और अनुकरणीय है।

जब सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिन को शिक्षक दिवस के रूप में मनाने की घोषणा हुई और इस दिवस पर राष्ट्रीय स्तर पर शिक्षकों के सम्मान की योजना बनाई गई, तब समस्त शिक्षा और राजनीति जगत ने एक स्वर में इसका समर्थन किया और इसकी सराहना की। यह राधाकृष्णन के व्यक्तित्व का सम्मान था। जीवन में सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न, ब्रिटिश सम्मान और विश्व के अनेक देशों के सम्मान से सम्मानित भारत के प्रथम उपराष्ट्रपति और द्वितीय राष्ट्रपति सर्वपल्ली का जीवन त्याग की मिसाल था। विचारों में समाहित उनकी वाणी आज पूरे विश्व में आदर पाती है। ‘द फिलॉस्फी ऑफ रवींद्रनाथ टैगोर’ (1918), इस पहली पुस्तक के बाद भारतीय दर्शन और चिंतन परंपरा पर उनकी दर्जनों पुस्तकें विद्या के क्षेत्र में आज भी ऊंचा स्थान रखती हैं।

तो इसलिए 5 सितंबर को मनाया जाता है शिक्षक दिवस, जानें क्या है कहानी और महत्व

भगवद्गीता, उपनिषद्, ब्रह्मसूत्रों और पूर्व-पश्चिम के धर्मों पर उनकी पुस्तकों और विद्वत्ता के आधार पर उन्हें ‘ब्रह्म विद्या भास्कर’ की अत्यंत महत्वपूर्ण उपाधि से सम्मानित किया गया। 1948 में भारत के विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग के अध्यक्ष के रूप में उनके योगदान और आयोग की संस्तुतियों की प्रासंगिकता आज भी सभी स्वीकार करते हैं। वह त्याग की प्रतिमूर्ति थे। अपना कार्यकाल पूरा होने से पहले ही उन्होंने 1967 में गणतंत्र दिवस के अपने भाषण में स्पष्ट कर दिया था, ‘राष्ट्रपति के रूप में अगले कार्यकाल के लिए मेरी कोई अभिलाषा नहीं।’

ऐसे शिक्षा मनीषी की स्मृति में शिक्षक दिवस के इस हीरक जयंती वर्ष में संपूर्ण शिक्षक-शिक्षा जगत को एक बार फिर से सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जीवन के विविध पक्षों का पुनरावलोकन कर इन्हें आत्मसात करने के लिए संकल्पित होना चाहिए। अन्यथा यह केवल एक कर्मकांड या रस्मअदायगी मात्र बनकर रह जाएगा।

(लेखक नेहरू ग्राम भारती यूनिवर्सिटी प्रयागराज के कुलपति हैं)

डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं





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