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हाइलाइट्स

  • पंजाब में सिद्धू को प्रदेश अध्यक्ष बनाने के बाद गुटबाजी चरम पर
  • पंजाब मुद्दे के बहाने पार्टी के सीनियर नेताओं में भी मतभेद सामने
  • अचानक छत्तीसगढ़ में विवाद सामने आ गया, दो बार हुई बातचीत

नई दिल्ली
क्या सियासी संकट से निकलना कांग्रेस भूल गई है? क्या पार्टी के अंदर क्राइसिस मैनेजमेंट का सिस्टम पूरी तरह ध्वस्त हो चुका है? क्यों महीनों से पार्टी अपने अंदरूनी मसलों को सुलझाने में विफल रही है? क्या शीर्ष नेतृत्व का नियंत्रण पार्टी पर कमजोर हो चुका है या नेतृत्वहीनता का संकट इसे बढ़ा रहा है? ये सवाल ऐसे वक्त उठे, जब पिछले कुछ दिनों से कांग्रेस को उन राज्यों में भी गुटबाजी का गंभीर सामना करना पड़ रहा है, जहां उसकी सरकार है। पंजाब, छत्तीसगढ़, राजस्थान में गुटबाजी इस कदर चरम पर है कि सरकार की स्थिरता तक खतरे में आ गई। इसी गुटबाजी के कारण कांग्रेस मध्य प्रदेश में डेढ़ दशक बाद सत्ता में आने के बाद सरकार गंवा चुकी है।

पार्टी नेतृत्व पर सवाल उठा रहे संगठन के नेता
राष्ट्रीय संगठन में पहले से ही असंतुष्ट नेताओं की लंबी फेहरिस्त है। वे लगातार अपने ही नेतृत्व पर सवाल उठा रहे हैं। पंजाब में नवजोत सिंह सिद्धू को प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बनाने के बाद भी गुटबाजी अपने चरम पर है। यहां महज सात-आठ महीने में विधानसभा चुनाव होने हैं। सीएम अमरिंदर सिंह की अगुआई वाला गुट इस बार सिद्धू खेमे से निपटने के मूड में दिखा। मामला दिल्ली में शीर्ष नेतृत्व तक पहुंचा, लेकिन मसला सुलझने के बजाय उलझ ही गया। सिद्धू के बेलगाम होने के बाद नेतृत्व ने संदेश दिया कि अमरिंदर राज्य के कैप्टन बने रहेंगे। मतलब जिस मंशा से पार्टी नेतृत्व ने वहां समझौता प्लान बनाया था, वह ध्वस्त होता दिखने लगा है।

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पंजाब : सिद्धू की ताजपोशी के बाद थम नहीं गुटबाजी
सूत्रों के अनुसार, जनता के बीच शक्ति प्रदर्शन की जगह अगले कुछ दिनों में दोनों खेमा आपस में ही शक्ति प्रदर्शन करने वाले हैं। सिद्धू कांग्रेस के दिल्ली नेतृत्व खासकर गांधी परिवार के करीबी बताए जाते हैं। हालांकि, पार्टी सूत्रों के अनुसार इस बार गुटबाजी अलग स्तर तक चली गई है। दोनों पक्ष फिलहाल किसी तरह के समझौते के मूड में नहीं है। साथ ही, सिद्धू पर खेला गया दांव भी उल्टा पड़ता दिख रहा है। पंजाब मुद्दे के बहाने पार्टी के सीनियर नेताओं में भी मतभेद दिखने लगे हैं। दरअसल, पंजाब संकट को भी हल्का लेने के कारण ही पार्टी आज इस मोड़ पर खड़ी दिख रही है। यहां पार्टी बिखरे विपक्ष के कारण बेहद मजबूत मानी जा रही थी। जानकारों के अनुसार, सिद्धू-अमरिंदर के बीच मतभेद पिछले चार साल से थे। उसे दूर करने की कभी गंभीर कोशिश नहीं की गई।

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छत्तीसगढ़ में सामने भी पार्टी में संकट
पंजाब का संकट रोकने की कोशिश हो रही थी कि अचानक छत्तीसगढ़ में विवाद सामने आ गया। पार्टी उस राज्य में खतरे में दिखने लगी है, जहां 2018 के अंत में दो-तिहाई सीट जीतकर 15 साल बाद सत्ता में आई थी। विवाद की शुरुआत स्वास्थ्य मंत्री टी.एस. सिंहदेव गुट के उस दावे के बाद हुई कि जब सरकार बनी थी, तब कांग्रेस नेतृत्व ने सीएम पद के लिए उनमें और भूपेश बघेल के बीच ढाई-ढाई साल के फॉर्म्युले की बात कही थी। जब जून में ढाई साल पूरा हुआ तो सिंहदेव गुट ने नेतृत्व से उस वादे को पूरा करने का आग्रह किया। इन ढाई साल में छत्तीसगढ़ के हालात बदल गए। भूपेश बघेल न सिर्फ मजबूत नेता के रूप में उभरे, बल्कि पार्टी का ओबीसी चेहरा भी बनने लगे

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नेतृत्व से संवादहीनता बन रही वजह
उधर, पार्टी नेतृत्व ने संकेत दिया कि वादे तो किए गए थे। दो बार दोनों गुट के साथ मीटिंग करने पर भी मामला नहीं सुलझा है। सूत्रों के अनुसार, अभी आने वाले दिनों में कोई स्पष्ट हल नहीं निकले तो विवाद और बढ़ सकता है। पार्टी के अंदरूनी सूत्रों के अनुसार, यहां भी संकट का मुख्य कारण नेतृत्व से संवादहीनता और मामले को हल्का लेने के कारण बढ़ा। पार्टी के एक सीनियर नता ने कहा कि अगर इस तरह की कोई बात थी तो वक्त रहते संवाद कर सुलझाना था। दूसरे संकट की तरह पार्टी नेतृत्व ने इस पर तब तक बात करने की कोई कोशिश नहीं की, जब तक अंदरूनी विवाद सार्वजनिक मंच पर नहीं लड़ा जाने लगा। वह भी ऐसे राज्य में जहां के गवर्नेंस को केंद्रीय नेतृत्च अपने गवर्नेंस मॉडल के रूप में पेश करना चाह रहा था।

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राजस्थान में भी हालत जस की तस
राजस्थान में भी पिछले चार साल से जारी गुटबाजी सुलझने के बजाय लगातार बढ़ता ही गया। पिछले साल जब सचिन पायलट बागी हुए थे, तब पार्टी नेतृत्व की ओर से उनकी मांग पर विचार करने का भरोसा दिलाया गया था। बाद में उनकी किसी मांगों को नहीं माना गया। इससे एक बार फिर राज्य में सचिन गुट में असंतोष बढ़ने लगा है, लेकिन पार्टी नेतृत्व ने समझौते का कोई ठोस फार्म्युला नहीं दिया। अगर दिया भी तो कभी एक गुट को मंजूर नहीं हुआ, तो कभी दूसरे गुट को। राहुल गांधी ने दोनों नेताओं से लचीला रुख अपनाकर एकजुट होने को कहा है। सचिन के करीबियों का कहना है कि उन्होंने राज्य में वाजिब सम्मान मांगा था, जो अब तक नहीं मिल रहा है। वहीं, अशोक गहलोत गुट कहता है कि ब्लैकमेलिंग के सामने नहीं झुकेंगे। कांग्रेस अब तक कोई स्थायी हल नहीं निकाल पाई।

तीन राज्यों में संकट को नासूर बनने का वक्त
बात सिर्फ इन्हीं तीन राज्यों में फैली गुटबाजी भर का नहीं है। राजस्थान, पंजाब और छत्तीसगढ़ ही नहीं, बल्कि पार्टी नेतृत्व कर्नाटक, गुजरात सहित तमाम छोटे-बड़े राज्यों में गुटबाजी से जूझ रही है। वहां भी इन तीन राज्यों की तरह ही संकट को नासूर बनने का पूरा वक्त दिया गया। पार्टी के एक सीनियर नेता ने माना कि इनमें से अधिकतर संकट को दूर किया जा सकता था। पिछले दो साल से पार्टी के पास पूर्णकालिक अध्यक्ष नहीं है। नेतृत्वहीनता का असर यह भी हुआ कि किसी के पास ठोस दिशा नहीं थी कि कौन अंतिम फैसला लेगा। पिछले कुछ दिनों से प्रियंका गांधी और राहुल गांधी ने संयुक्त रूप से संकट से निपटने की कोशिश की है, लेकिन कई मामले में ‘अब बहुत देर हो चुकी है’ वाली स्थिति दिखने लगी है।

पार्टी ने माना- गुटबाजी, निर्णय नहीं लेने के कारण हुआ नुकसान
उधर, पार्टी अब इस बात को मान रही है कि गुटबाजी और निर्णय नहीं लेने के कारण बड़ा नुकसान पहले ही हो चुका है। पार्टी यह भी मान कर चल रही है कि स्पष्ट स्टैंड लेने से कुछ नेताओं को नागवार गुजर सकता है और पार्टी को इसके लिए भी तैयार होना चाहिए। क्या पार्टी इस सोच को अमल कर वर्षों पुरानी गुटबाजी को दूर कर 2024 से पहले एकजुट होकर मुकाबले में आ पाएगी? इन सवालों के जवाब अगले कुछ दिनों में संकट से निपटने की कोशिशों को देखकर पता चल सकता है।

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