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विनय सीतापति, राजनीति विज्ञानी एवं पत्रकार
जनता पार्टी के अंदर जनसंघ पर आक्रमण शुरू हो गया था। जगजीवन राम ने एक पत्र लिखकर चुनाव में हार के लिए उसे दोषी ठहराया। आडवाणी और वाजपेयी समझ गए कि यह किस दिशा में जा रहा है। जब जनता पार्टी ने ‘दोहरी सदस्यता’ पर अंतिम निर्णय लेने के लिए 4 अप्रैल 1980 को बैठक बुलाने का फैसला किया, तो वाजपेयी और आडवाणी ने घोषणा कर दी कि 5 और 6 अप्रैल को जनसंघ की एक रैली होगी। जनता पार्टी की बैठक में वही हुआ, जिसकी आशंका थी। 14 के मुकाबले 17 वोटों के बहुमत से राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने निर्णय लिया कि जनता पार्टी का कोई सदस्य आरएसएस का भी सदस्य नहीं हो सकता। जनसंघ ने इसे आभासी निष्कासन माना और आरएसएस को छोड़ने के बजाय जनता पार्टी को छोड़ने का फैसला लिया।

जनसंघ ने अगले दिन, 5 अप्रैल 1980 को फिरोजशाह कोटला में बैठक की। 1500 लोगों के आने की उम्मीद थी, लेकिन 3,683 पार्टी प्रतिनिधि ही उसमें शामिल हुए। मंच पर महात्मा गांधी और जयप्रकाश नारायण के साथ दीनदयाल उपाध्याय की भी तस्वीर लगी थी, जिन्हें फूल-मालाओं से सजाया गया था। मंच पर ऐसे लोग मौजूद थे और भाषण भी दे रहे थे, जो आरएसएस से संबद्ध नहीं थे, जैसे वकील शांतिभूषण, राम जेठमलानी और सिकंदर बख्त। वहीं पर लालकृष्ण आडवाणी ने एक नई पार्टी की घोषणा की, जिसके अध्यक्ष वाजपेयी ने 6 अप्रैल को अपने भाषण में कहा कि ‘जनता पार्टी की नीतियों और उसके कार्यक्रमों में कोई खामी नहीं थी। असल में लोगों ने राजनेताओं के व्यवहार के खिलाफ वोट दिया था।’ नई पार्टी के अजेंडा और प्रतीक की घोषणा बाद में होने वाली थी, लेकिन 6 अप्रैल 1980 को दिन खत्म होने से पहले ही नाम की घोषणा हो गई। फिर से जनसंघ नाम अपनाने की बजाय नई पार्टी खुद को जनता पार्टी का उत्तराधिकारी बताना चाहती थी। इसे नाम दिया गया भारतीय जनता पार्टी यानी भाजपा।

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नाना जी कैसे हुए थे ‘बाहर’
वाजपेयी और आडवाणी द्वारा आरएसएस को छोड़ने की बजाय नई पार्टी गठित करने के निर्णय से संघ उनका आभारी था। 13 अप्रैल 1980 को ‘ऑर्गनाइजर’ के संपादकीय में दावा किया गया, ‘कई लोग नई पार्टी को पुराने जनसंघ का नाम देना चाहेंगे, लेकिन नई पार्टी के लिए नया नाम ही उचित था… इसमें कई नए तत्व हैं, जिससे उसका जनाधार बढ़ेगा।’ वाजपेयी ने आरएसएस का वफादार रहने की गर्मजोशी दिखाई थी, साथ ही उन्होंने बड़ी बेरहमी से नई पार्टी में अपने बचे हुए प्रतिद्वंद्वियों को समाप्त कर दिया। उन्होंने आरएसएस प्रमुख बाला साहेब देवरस से मिलकर कहा, ‘पार्टी में (सुबह्मण्यम) स्वामी रहेंगे या मैं रहूंगा।’

वाजपेयी को जिस शख्स को निकालने में दिक्कत हुई, वह थे नानाजी देशमुख। जनसंघ के सह-संस्थापक नानाजी उम्र में वाजपेयी से बड़े थे और शायद पार्टी में अकेले व्यक्ति थे, जो सम्मान सूचक ‘जी’ लगाए बिना सिर्फ ‘अटल’ कह सकते थे। लेकिन जनता पार्टी द्वारा सिद्धांतों की तुलना में महत्वाकांक्षाओं को अधिक महत्व देने से उस समय तक नानाजी का मोहभंग हो चुका था। साथ ही इस बात पर भी उनका विरोध था कि वाजपेयी ने क्रमबद्ध तरीके से उनकी पदावनति की। नानाजी इस पर सार्वजनिक विवाद खड़ा कर सकते थे, जैसा कि दूसरी पार्टियों में होता था। उसके बजाय उन्होंने राजनीति से संन्यास लेने की घोषणा कर दी। कहा कि वह साठ साल के हो गए हैं और एक मिसाल कायम करना चाहते हैं।

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नानाजी ने ग्रामीण भारत में जाकर काम करने का फैसला किया। अंतत: वह चित्रकूट में जाकर आदिवासियों के साथ काम करने लगे। स्थान के रूप में चित्रकूट का चुनाव भी प्रतीकात्मक था क्योंकि रामायण में उल्लेख है कि राम ने अपने भाई लक्षमण और पत्नी सीता के साथ चौदह वर्ष के वनवास का कुछ हिस्सा इन्हीं जंगलों में बिताया था। नानाजी ने भी अपना ‘वनवास’ उसी चित्रकूट में बिताने का निर्णय लिया था। उनके निकल जाने से वाजपेयी और आडवाणी की साझेदारी का अंतिम प्रतियोगी भी समाप्त हो गया था। आरएसएस इन दोनों के प्रति आभारी था, इसलिए अब यह जोड़ी इसके लिए स्वतंत्र थी कि नई पार्टी का स्वरूप और सिद्धांत कैसा होगा?

अटल-आडवाणी का आगे बढ़ना
जुगलबंदी ऐसे संगीत को कहते हैं, जिसमें दो संगीतज्ञ इतने तालमेल से प्रस्तुति देते हैं कि पता नहीं चलता कि कौन मुख्य कलाकार है और कौन संगत दे रहा है। आडवाणी कई दशकों तक वाजपेयी के मातहत रहे थे, लेकिन 1980 तक उनका रिश्ता बराबरी का हो गया था। पहले आडवाणी को हमेशा वाजपेयी की जरूरत पड़ती थी, लेकिन अब वाजपेयी को भी आडवाणी की आवश्यकता थी। दोनों के बीच शास्त्रीय जुगलबंदी थी। यही कारण था कि बीजेपी का स्वरूप तय करते समय वाजपेयी ने सुनिश्चित किया कि जनता सरकार के असफल प्रयोग से सबक लेने में आडवाणी भी उनके साथ शामिल हों। उन्होंने इस पर मिलकर विचार किया और इस नतीजे पर पहुंचे कि जनता सरकार ने नागरिक स्वतंत्रता, समाजवाद और विकेंद्रीकरण के साथ अलग विचारधारा प्रस्तुत की थी। दोनों का मानना था कि भारतीय मतदाताओं के लिए यह विचारधारा हिंदुत्व से अधिक स्वीकार्य थी। 1980 के चुनावों में मतदाताओं ने जेपी की विचारधारा की विरासत को नहीं, बल्कि उसे अमली जामा पहनाने वाले नेताओं की आपसी लड़ाई को खारिज किया था। वाजपेयी और आडवाणी इस नतीजे पर पहुंचे कि नवगठित बीजेपी के हिंदू राष्ट्रवादी अनुशासन को जयप्रकाश नारायण की नीतियों के साथ मिलाना होगा। उसे आरएसएस से भी दूरी रखनी होगी। इस तरह की उदारवादी पार्टी बनाने के लिए वाजपेयी और आडवाणी को काफी कुशलता की जरूरत थी। ये दोनों काफी समय से संसद, पार्टी, आंदोलन और मतदाताओं के बीच संतुलन बनाने के लिए साथ मिलकर काम करने के अभ्यस्त हो चुके थे। उन्हें विश्वास था कि वे फिर से वैसे ही काम कर सकते हैं।

(विनय सीतापति की पुस्तक- ‘जुगलबंदी, भाजपा मोदी युग से पहले’ हिंदी अनुवाद प्रकाशक हिंद पॉकेट बुक्स से साभार)

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