जब 19 जुलाई को घटना का एक वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुआ, तो उसके कुछ ही दिनों बाद मणिपुर हाई कोर्ट ने एक लंबी अदालती प्रक्रिया के बाद राज्य में इंटरनेट सेवाओं को बहुत सीमित स्तर पर बहाल करने का आदेश दिया था। मणिपुर में इंटरनेट शटडाउन के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में एक के बाद एक, तीन याचिकाएं डाली गईं लेकिन देश की सर्वोच्च अदालत ने तीनों मौकों पर इस पर मामले में हस्तक्षेप से इनकार कर दिया।आखिरकार 20 जुलाई को जब दो महिलाओं के साथ बर्बरता का वीडियो वायरल हुआ तब जाकर सुप्रीम कोर्ट ने संज्ञान लिया।
राज्य और केंद्र सरकारों में उच्च पदस्थ निर्वाचित अधिकारियों के यह कहने से कि गिरफ्तारी के लिए कड़ी कार्रवाई की जाएगी, वीडियो के वायरल होने का विभिन्न स्तरों पर निश्चित प्रभाव पड़ा है। हालांकि यह दुर्भाग्यपूर्ण है, लेकिन यह भी सही है कि ऐसा केवल इंटरनेट पर बातचीत की शुरुआत और हिंसा की बेहद परेशान करने वाली तस्वीरों और वीडियो को साझा करने से ही संभव हो सका है। बेशक इस पर भी विचार होना चाहिए कि आखिर कैसे अफवाहों ने एक भीड़ को महिलाओं के साथ अत्याचार को उकसाया। 3 मई और 4 मई को इंटरनेट पर आंशिक रोक के आदेशों में यही इशारा किया गया था कि अफवाहों पर रोक के लिए यह जरूरी है।
3 मई के आदेश में ‘विभिन्न सोशल मीडिया प्लैटफॉर्मों के जरिए गलत सूचना और झूठी अफवाहों का प्रसार रोककर राष्ट्र-विरोधी और असामाजिक तत्वों की साजिश और गतिविधियों को विफल करने’ का इरादा व्यक्त किया गया है। जब यह घटना हुई तो मणिपुर में इंटरनेट सेवाओं को निलंबित कर दिया गया था। इस कारण किसी भी सूचना की फैक्ट-चेकिंग और उसे गलत या सही बताने के साधन बेहद सीमित हो गए। दरअसल, इसका कोई अध्ययन या अनुभवजन्य प्रमाण नहीं है कि इंटरनेट शटडाउन अफवाहों के प्रसार के खिलाफ प्रभावी उपाय है। फिर भी, हम नियमित रूप से देखते हैं कि भारत में सरकारें अशांति का संकेत मिलते ही और यहां तक कि शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शनों को भी काबू में रखने के लिए इंटरनेट सेवाों को निलंबित कर देती हैं। सरकारों की दलील होती है कि उन्होंने ‘गलत सूचनाओं और अफवाहों’ के प्रसार को रोकने के लिए कदम उठाया है।
इसके विपरीत, जान रिडजाक जैसे विद्वानों के अध्ययनों में पाया गया है कि इंटरनेट शटडाउन अशांति को शांत करने में निष्प्रभावी है, बल्कि इससे अक्सर सामूहिक कार्रवाई के हिंसक रूपों को प्रोत्साहन मिलता है जिसके लिए सीमित संपर्क और आपसी समन्वय की आवश्यकता होती है। जून 2023 में ह्यूमन राइट्स वॉच और इंटरनेट फ्रीडम फाउंडेशन की ओर से जारी एक संयुक्त रिपोर्ट, जिसे जयश्री बाजोरिया ने लिखा था, में पाया गया कि इंटरनेट शटडाउन से सबसे अधिक प्रभावित होने वालों में देश की हाशिए पर रहने वाली आबादी होती है जो सरकारी योजनाओं और सामाजिक सुरक्षा के उपायों पर निर्भर है। यह विशेष रूप से इसलिए है क्योंकि डिजिटल इंडिया में इंटरनेट की पहुंच काम के अधिकार की गारंटी (MGNREGA), सार्वजनिक खाद्य वितरण प्रणाली (PWS) और ग्रामीण क्षेत्रों में ई-गवर्नेंस जैसी कल्याणकारी योजनाओं तक पहुंच के लिए आवश्यक हो गई है।
ऐसे ही वजहों से सुप्रीम कोर्ट ने 2020 में माना था कि भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में इंटरनेट के माध्यम से अपना पेशा चलाने की स्वतंत्रता को अनुच्छेद 19 (1) (ए) और अनुच्छेद 19 (1) (जी) के तहत संवैधानिक संरक्षण प्राप्त है। तब सुप्रीम कोर्ट ने कहा था ऐसे मौलिक अधिकारों पर कोई भी प्रतिबंध संविधान के अनुरूप होना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट कहा था कि अनिश्चितकाल के लिए इंटरनेट बंद करना अवैध और असंवैधानिक है। फिर भी, मणिपुर सरकार ने पहले पांच-पांच दिन और फिर 3 मई से अनिश्चितकाल के लिए इंटरनेट बंद कर दिया। इसका सीधा प्रभाव शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाओं और पत्रकारिता पर पड़ा है।
मणिपुर के मुख्यमंत्री ने एक टीवी इंटरव्यू में गजब की ईमानदारी दिखाते हुए कहा कि पिछले 70 दिनों में ऐसी सैकड़ों घटनाएं हुई हैं, और यही कारण है कि इंटरनेट पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। लेकिन 4 मई की घटना से संबंधित तस्वीरें अपने आप में सबूत हैं कि मणिपुर सरकार इंटरनेट पर बैन लगाकर भी अफवाहों और हिंसक घटनाओं को रोकने में फेल रही है। यह तो स्पष्ट है कि मणिपुर में क्या चल रहा है, इसकी जानकारी साझा करने में भारी मुश्किलों के कारण प्रदेश के अधिकारियों को जवाबदेही से बचने का रास्ता मिल रहा है।
इंटरनेट बंद के 70 दिनों के बाद भी मणिपुर में कानून और व्यवस्था की स्थिति में सुधार नहीं हुई है। इसके बजाय सैकड़ों जघन्य मामले इंटरनेट बैन की वजह से दब गए हैं। 4 मई की भायवह घटना की शिकार पीड़ितों ने पुलिस की मिलीभगत का आरोप लगाया है। जब तक उसका वीडियो वायरल नहीं हुआ, मामले के आरोपियों में किसी एक को भी गिरफ्तार नहीं किया गया था।
इसके बावजूद कि जो कानून और भारतीय संविधान में जो लिखा है, इसके बावजूद कि सुप्रीम कोर्ट ने जो कहा है, और इसके बावजूद कि इंटरनेट बंद करने के आदेशों में इस्तेमाल की गई भाषा से जो स्पष्ट है, इंटरनेट ब्लैकआउट का आदेश राज्य की सुरक्षा या लोगों की सुरक्षा के लिए नहीं दिया गया है। मणिपुर में सरकार की सुरक्षा के लिए दो महीने से अधिक समय से इंटरनेट सेवा बंद है।
लेखक तन्मय सिंह इंटरनेट फ्रीडम फाउंडेशन के वरिष्ठ वकील हैं।