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why asaduddin owaisi claims baseless about muslim freedom fighters not getting place in history textbooks


हसन सुरूर
भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में मुस्लिमों का योगदान अबतक राजनीतिकरण से बचा हुआ है। वह भी तब जब ‘लिबरल पक्षपात’ को सही करने के लिए इतिहास के टेक्स्टबुक्स को दोबारा लिखे जाने के जब तब छिटपुट कोशिशें होती रही हैं। यहां तक कि दक्षिणपंथी इतिहासकार भी बेमन से ही सही, स्वतंत्रता आंदोलन में मुस्लिमों की भूमिका का सम्मान करते हैं।

लेकिन जब सांस्कृतिक युद्ध अपने शबाब पर हो तो किसी पर कहां कोई अंकुश होता। कोई भी विषय हो, कोई भी क्षेत्र हो, लोग अपने अधकचरे ज्ञान के प्रदर्शन से बाज नहीं आ रहे। हमेशा भृकुटियां ताने रहने वाले एआईएमआईएम नेता असदुद्दीन ओवैसी अनाम सांप्रदायिक और फासिस्ट ताकतों पर हमला करते रहते हैं। आरोप लगाते हैं कि ये ताकतें आजादी की लड़ाई में मुस्लिमों की भूमिका को इतिहास के पन्नों से मिटा देने की कोशिश में लगी हैं।

भारत की आजादी की 75वीं सालगिरह मनाने के लिए हैदराबाद में हुई एक रैली में औवैसी अपने चिरपरिचित अंदाज में कहते हैं, ‘हम देख रहे हैं कि सांप्रदायिक और फासीवादी ताकतें इतिहास से छेड़छाड़ कर रही हैं। हमारे अजीज मुल्क की आजादी की लड़ाई में मुस्लिमों की भूमिका को या तो इतिहास से मिटाया जा रहा या बताया नहीं जा रहा।’

उन्होंने इतिहास की किताबों से मुस्लिम स्वतंत्रता सेनानियों का नाम मिटाने की कोशिशों के ‘पर्दाफाश’ के लिए अभियान शुरू किया है। वह कहते हैं कि उनका मिशन भारत की आजादी को हकीकत में बदलने के लिए मुस्लिमों की कुर्बानी और उनके किरदार के बारे में जनता को शिक्षित करना है। लेकिन जरा सोचिए तो कि आखिर कौन शिक्षित कर रहा? इतिहासकार नहीं बल्कि उलेमा और वे लोग जो अनाम महत्वपूर्ण संगठनों से ताल्लुक रखते हैं।

क्या कहते हैं रिकॉर्ड

दोनों समुदायों के बीच संदेह और अविश्वास के मौजूदा दौर में ओवैसी ऐसी बातों से बाज आ सकते थे। लेकिन उन्होंने कुछ मुस्लिम स्वतंत्रता सेनानियों का नाम ट्वीट करने की गलती कर दी जिनके बारे में उनका दावा है कि इतिहास की किताबों में उनका कोई जिक्र नहीं है।

ओवैसी खासतौर पर 4 मुस्लिम हस्तियों का जोर देकर जिक्र करते हैं जिनके बारे में उनका दावा है कि इन हस्तियों के साथ इंसाफ नहीं किया गया।

(1) हैदराबाद की मक्का मस्जिद के इमाम रहे मौलवी अलाउद्दीन (असली नाम सैयद अलाउद्दीन हैदर) को पहला ऐसा स्वतंत्रता सेनानी माना जाता है जिन्हें 1857 में हैदराबाद स्थित ब्रिटिश रेजिडेंसी पर हमले के लिए कालापानी की सजा दी गई।

(2) मोहम्मद मौलवी बकर, भारत की आजादी के लिए जान न्यौछावर करने वाले पहले पत्रकार।

(3) झांसी की रानी के सेनापति खुदा बख्श।

(4) उद्योगपति सबाह सादिक जिन्होंने अपना बिजनस बंद करके महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन की मदद की।

लेकिन ओवैसी जो कहानी सुना रहे हैं, वह तथ्यात्मक रूप से गलत है। उनके दावे के उलट सच्चाई ये है कि इन चारों में से तीन- मौलवी अलाउद्दीन, मोहम्मद मौलवी बकर और खुदा बख्श जाने-माने नाम हैं। इनके बारे में सार्वजनिक तौर पर भरपूर सूचनाएं हैं। डिजिटल युग में महज एक क्लिक में इनसे जुड़ी सूचनाएं उपलब्ध है। आपको बस उनका नाम गूगल करने की जरूरत है।

बस सबाह सादिक ही अपवाद हैं। हालांकि, मैं इसे लेकर निश्चित नहीं हूं कि उनकी भूमिका को मिटाने के लिए कोई साजिश रची गई है। आजादी की लड़ाई में बहुत से गुमनाम नायकों ने बढ़कर हिस्सा लिया। इनमें कारोबारी थे, जमींदार थे, व्यापारी थे…आम लोग थे। उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में इसलिए हिस्सा नहीं लिया कि वह एक हीरो के तौर पर मान्यता की आस लगाए थे जबकि इसलिए शिरकत की कि देश के लिए यह उनका फर्ज था। देशभक्ति की उनका धर्म था।

Zakir Hussain

कद्दावर मुस्लिम नेता रहे जाकिर हुसैन (बीच में) आगे चलकर देश के राष्ट्रपति भी बने

ओवैसी एक मुस्लिम महिला मंजर का भी जिक्र करते हैं जो हमेशा झांसी की रानी के साथ रहा करती थीं और कोटा की लड़ाई के दौरान बलिदान दिया था। इसके अलावा वह भटनिया अंसारी का जिक्र करते हैं जो महात्मा गांधी के लिए खाना बनाया करते थे। उनको एक बार खाने में जहर मिलाने का लालच दिया गया लेकिन उन्होंने ऐसा करने से इनकार कर दिया।

ओवैसी की दलीलों के साथ समस्या ये है कि आजादी की लड़ाई में लाखों भारतीयों ने हिस्सा लिया (मेरे अपने माता-पिता भी)। उन्होंने मुस्लिम, हिंदू या ईसाई के तौर पर नहीं बल्कि भारतीय के तौर हिस्सा लिया। उनके शौर्य की हर कहानी का दस्वावेजीकरण मुमकिन नहीं है। भले ही वे हिंदू हों या मुस्लिम हों या किसी अन्य समुदाय के हों।

राष्ट्रीय स्तर के ज्यादातर मुस्लिम नेता- मौलाना अबुल कलाम आजाद, जाकिर हुसैन, रफी अहमद किदवई, अब्दुल गफ्फार खान, आसफ अली, अशफाकुल्ला खान, बदरूद्दीन तैयबजी…को भरपूर प्यार और सम्मान मिला। उन्हें सरकार में ऊंचे ओहदे मिले, सड़कों और संस्थाओं को उनके नाम मिले, उनकी जीवनियां लिखी गईं हैं और उनकी जयंतियां और पुण्यतिथियां नियमित तौर पर मनाई जाती हैं।

इतिहासकारों की दृष्टि

जन आंदोलनों के साथ अक्सर ये होता है। कुर्बानी देने वाले गुमनाम नायक हमेशा गुमनाम ही रह जाते हैं और आंदोलन के नेताओं को सारा श्रेय मिल जाता है। जन आंदोलनों के इतिहास में अक्सर वर्ग भेद दिख जाता है।

यहां तक कि हिंदू-मुस्लिम दोनों ही पक्षों के प्रतिष्ठित इतिहासकारों को भी स्वतंत्रता आंदोलन को अपर क्लास के नजरिए से देखने और लोवर क्लास को नजरअंदाज करने के लिए आलोचनाओं का सामना करना पड़ा है। यहां तक कि स्वतंत्रता आंदोलन में मुस्लिमों की भागीदारी का खास जिक्र करने वाले कुछ सबसे प्रतिष्ठित इतिहासकारों में से एक दिवंगत मुशिरुल हसन को भी अशराफ (उच्च) वर्ग पर बहुत ज्यादा फोकस करने के लिए आलोचनाओं का सामना करना पड़ा।

जाने-माने मार्क्सवादी इतिहासकार ईएच कार की इतिहास के छात्रों को दी गई एक सलाह बहुत ही चर्चित है- ‘इतिहास पढ़ने से पहले इतिहासकारों को पढ़िए।’ निष्पक्ष, वस्तुनिष्ठ इतिहास जैसी कोई चीज नहीं होती। हर इतिहासकार का अपना नजरिया होता है, अपनी दृष्टि होती है।

कुछ को लग सकता है कि मुस्लिमों के योगदान को लेकर और ज्यादा उदारता होनी चाहिए। मुस्लिम ही क्यों, कुछ दूसरे समहूों पर भी ये लागू होनी चाहिए। लेकिन ऐसा कहना कि मुस्लिम फ्रीडम फाइटर्स के बारे में जानबूझकर नहीं लिखा गया, पूरी तरह गलत और अतिश्योक्तिपूर्ण है। ऐसे वक्त में जब हिंदू-मुस्लिम के बीच खाई बढ़ी हुई है, मुस्लिम वोटों को लुभाने के लिए औवैसी के ये भड़काऊ बयान काफी खतरनाक हैं।

बिहार विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी का प्रदर्शन ठीक-ठाक रहा था। तबसे ही वह दूसरे उत्तर भारतीय राज्यों में भी अपना पैर पसारने की कोशिश करते रहे हैं लेकिन चुनावी प्रदर्शन बेहद लचर रहा है। ओवैसी हार से हताश अपने कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ाने की लगातार कोशिश कर रहे हैं। वह मुसलमानों को लामबंद करने के लिए खुद को समुदाय की इकलौती भरोसेमंद आवाज के तौर पर पेश करने की कोशिश कर रहे हैं। उनका तथाकथित अभियान भी इसी कड़ा का हिस्सा है।

हालांकि, ओवैसी की ये रणनीति मनमाफिक असर पैदा करने में नाकाम रही है। ज्यादातर ने इसे पैंतरेबाजी बताकर खरिज किया है। वैसे ये कोई पहली बार नहीं है जब ओवैसी ने आधा-अधूरा सच या फिर झूठ परोसा है। कुछ दिनों पहले उन्होंने दावा किया था कि इंडिया गेट पर जिन 95,300 शहीदों के नाम लिखे गए हैं उनमें से 61,945 मुस्लिम समुदाय से हैं यानी 65 प्रतिशत शहीद मुसलमान हैं।

ओवैसी ने कहा था, ‘दिल्ली के इंडिया गेट पर करीब 95,300 स्वतंत्रता सेनानियों के नाम लिखे गए हैं। इनमें मुस्लिम 61935, सिख 8050, ओबीसी 14480, दलित 10777, सवर्ण 598 और संघी जीरो हैं। और उसके बाद कुछ बेशर्म लोग कहते हैं कि मुस्लिम गद्दार हैं जबकि खुद उनकाइतिहास ही अंग्रेजों के लिए जासूसी करने का रहा है।’

लेकिन, टाइम्स फैक्ट चेक टीम ने ओवैसी का दावा झूठा पाया है। इंडिया गेट पर ब्रिटिश भारत के उन सैनिकों के नाम लिखे गए हैं जो पहले विश्वयुद्ध और तीसरे अफगान युद्ध में मारे गए थे। वे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी नहीं थे। इंडिया टुडे के एंटी-फेक न्यूज वॉर रूम ने भी ओवैसी के झूठ के पुलिंदे की पोल खोली है।

सांस्कृतिक युद्ध चल रहा है। भावनाओं को भड़काने के लिए प्रतिद्वंद्वी हिंदू और मुस्लिम गुट विक्टिमहुड का नैरेटिव सेट करने की होड़ में लगे हैं। लेकिन सुकून की बात ये है कि ज्यादातर आम लोग सच्चाई देखना शुरू कर चुके हैं। ओवैसी स्वतंत्रता आंदोलन को लेकर जिस तरह की पैंतरेबाजी दिखा रहे हैं, वह काम नहीं आने वाली।

वैसे, AIMIM नेता को तय करना ही होगा कि वह एक प्रतिक्रियावादी और सांप्रदायिकता को बढ़ावा देने वाले भड़काऊ नेता ही बने रहना चाहते हैं या एक गंभीर और जिम्मेदार मुस्लिम नेता के तौर पर उभरना चाहते हैं। सच्चे अर्थों में कौम का एक ऐसा नेता जो अपनी समुदाय की भलाई के लिए कोशिश करता हो। अपने समुदाय के हितों के लड़ने में कोई बुराई नहीं है लेकिन मुद्दे ऐसे होने चाहिए जो उनकी रोजमर्रा की जिंदगी को प्रभावित करते हों। जैसे शिक्षा, नौकरी, सुरक्षा न कि प्रतिद्वंद्वियों के साथ छद्म वैचारिक युद्ध के लिए बेशर्मी से इनका प्यादे के तौर पर इस्तेमाल।

ओवैसी की छवि चुनावी फायदे के लिए सांप्रदायिक खाई बढ़ाने वाले एक भड़काऊ नेता की ही बनी हुई है। उनकी विश्वसनीयता पहले से ही सवालों के घेरे में है क्योंकि उनके कई पूर्व समर्थकों की भी उनके नेतृत्व के बारे में अच्छी राय नहीं है। समय तेजी से भाग रहा है, उन्हें सही रास्ता पकड़ना होगा। कहीं ऐसा न हो कि बहुत देर हो जाए।

(टाइम्स ऑफ इंडिया में छपे हसन सुरूर के लेख का अनुवाद, लेखक लंदन में रहने वाले स्वतंत्र राजनीतिक विश्लेषक हैं)

लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए क्लिक करें : Why Owaisi is wrong about Muslim freedom fighters not getting their due



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