जेहान परेरा
9 जुलाई की रात श्रीलंका में जिस तरह से प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे के निजी आवास को फूंक दिया गया, वह उसके इतिहास की एक महत्वपूर्ण तारीख का बदसूरत अंत था। इस घर में प्रधानमंत्री विक्रमसिंघे अपनी पत्नी के साथ रहते हैं। अपने पिता के बनवाए इस घर को वह अपनी वसीयत में सड़क के दूसरी ओर स्थित रॉयल कॉलेज के नाम कर चुके हैं, जहां के वह छात्र रहे हैं। इसलिए विक्रमसिंघे के लिए लोगों के मन में सहानुभूति है। लेकिन जिस तरह की विभाजनकारी और घृणा से भरी राजनीति श्रीलंका में देखने को मिल रही है, उसमें ऐसे लोगों की संख्या भी कम नहीं, जो उनके लिए ऐसा भाव नहीं रखते। उन्हें वे प्रधानमंत्री पद पर काबिज ऐसे शख्स के रूप में देखते हैं, जो राजपक्षे सरकार को बचाने की कोशिश में लगा था, जबकि आम जनभावना अभी यही है कि राजपक्षे सरकार को जल्द से जल्द जाना चाहिए।
शनिवार की घटनाओं के पीछे
शनिवार के घटनाक्रम की शांतिपूर्ण शुरुआत देश के अलग-अलग हिस्सों से दसियों हजार लोगों के कोलंबो स्थित मुख्य प्रदर्शन स्थल पहुंचने से हुई, जहां करीब चार महीने से हर रोज सरकार विरोधी प्रदर्शन हो रहे थे। ये लोग तरह-तरह की सवारी लेकर आए थे। जिसे जहां जो वाहन मिल गया, उसी का सहारा ले लिया। बहुत से लोग खुली ट्रकों में भरकर आए तो कई लोग पैदल चलकर। एक विडियो पोस्ट वायरल हुई है, जिसमें बताया गया कि स्कूली बच्चे छह घंटे साइकल चलाकर कोलंबो पहुंचे थे।
9 मई को भारी जन आक्रोश उमड़ने के बाद जब तत्कालीन प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे पद से हटे तो वह बड़ी सफलता थी, लेकिन इसके बाद हाल के हफ्तों में प्रदर्शनकारियों की संख्या में गिरावट देखी गई। विरोध प्रदर्शनों का कोई नतीजा न निकलते देख लोग थकने लगे थे। हालांकि राष्ट्रपति से पद छोड़ने की अपील करने वाला नारा – गोटा गो होम यानी गोटा घर जाओ- अभी भी लगाया जा रहा था।
राष्ट्रपति सचिवालय, प्रधानमंत्री कार्यालय और प्रधानमंत्री के आधिकारिक आवास और राष्ट्रपति के आधिकारिक आवास पर धावा बोलने की घटना उसके बाद हुई। सुरक्षाकर्मियों ने भीड़ को तितर-बितर करने के लिए आंसू गैस के गोले दागे और हवाई फायरिंग भी की। मगर वे उन लोगों को रोकने में नाकाम रहे। लोग इन इमारतों में घुसने को बेचैन थे, अपनी जान गंवाने की कीमत देकर भी। हजारों की भीड़ पीछे से इन लोगों पर आगे बढ़ने का दबाव बना रही थी। आखिरकार सुरक्षा बलों को पीछे हटना पड़ा और फिर सारे बंधन टूट गए। लोग दीवारों पर चढ़ते, परिसर में घुसते जा रहे थे। वे अपने शासकों की विलासिता पर ताज्जुब कर रहे थे, उनका विडियो बना रहे थे। बहुतों ने राष्ट्रपति आवास में बने स्विमिंग पूल में डुबकी भी लगाई।
इसके आगे क्या
मगर अब सवाल यह है कि आगे क्या? श्रीलंका अभी जिस गर्त में है, वहां से निकलने के लिए उसे राजनीतिक स्थिरता और आर्थिक योजना की तुरंत जरूरत है। आईएमएफ और श्रीलंका की मित्र सरकारों ने समर्थन की यही शर्त भी रखी है। दो महीने के अपने कार्यकाल में प्रधानमंत्री विक्रमसिंघे अपेक्षा के अनुरूप रिजल्ट नहीं दे सके हैं। सरकार के अंदर जबर्दस्त खींचतान है और करप्शन, कुप्रबंधन के आरोप जस के तस हैं। अंतरराष्ट्रीय बिरादरी का भी वैसा सपोर्ट नहीं मिला जैसी उम्मीद की जा रही थी। महंगाई बढ़ती जा रही है, फ्यूल, दवाएं, खाद्यान्न और डॉलर की किल्लत बरकरार है। पेट्रोल पंपों के सामने कतारें और लंबी हो गई हैं।
इस्तीफे पर अनिश्चितता
9 जुलाई के सामूहिक विरोध प्रदर्शन के बाद भी राजनीतिक परिवर्तन को लेकर आश्वस्त नहीं हुआ जा सकता। राष्ट्रपति कार्यालय, राष्ट्रपति आवास और पीएम का दफ्तर- सभी प्रदर्शनकारियों के कब्जे में हैं। पार्लियामेंट के स्पीकर ने घोषणा की है कि राष्ट्रपति 13 जुलाई को इस्तीफा देने की सोच रहे हैं। प्रधानमंत्री ने इस्तीफे की सशर्त पेशकश की है। वे सचमुच इस्तीफा देते हैं या नहीं यह समय ही बताएगा। इस बीच राष्ट्रपति कहां हैं, यह किसी को नहीं पता। वह श्रीलंका में ही कहीं हैं या देश छोड़कर जा चुके हैं इस बारे में भी कोई अंदाजा नहीं है। मगर उनके कार्यालय ने बताया है कि वे देश में जरूरी वस्तुओं, खासकर रसोई गैस की किल्लत दूर करने के लिए महत्वपूर्ण फैसले कर रहे हैं।
बार असोसिएशन जैसे प्रभावशाली सिविल सोसायटी ग्रुप्स का प्रस्ताव है कि अंतरिम तौर पर सीमित कैबिनेट सीटों वाली एक सर्वदलीय सरकार गठित की जाए, जो देश के सामने मौजूद सर्वाधिक महत्वपूर्ण समस्याओं से निपटे। साथ ही जल्द से जल्दी चुनाव करवाए जाएं ताकि सरकार पर लोगों का विश्वास बहाल किया जा सके।
तमिल नैशनल अलायंस भी शामिल हो
देखा जाए तो प्रस्तावित सर्वदलीय सरकार में श्रीलंकाई तमिलों के मुख्य राजनीतिक दल तमिल नैशनल अलायंस को भी शामिल किया जाना चाहिए। यह भागीदारी उस जातीय विभाजन के रिसते जख्मों पर मरहम लगाने के लिए जरूरी है, जिसकी जड़ें श्रीलंका की आजादी तक जाती हैं। जल्द से जल्द चुनाव आगे बढ़ने का सबसे महत्वपूर्ण सूत्र है और इसमें न केवल राष्ट्रीय चुनाव बल्कि प्रांत स्तर के चुनाव भी शामिल हैं, जो तीन साल से किसी न किसी कारण टलते आ रहे हैं। भारत के दबाव में 1987 में शुरू किया गया प्रॉविंशल काउंसिल सिस्टम ही तमिल बहुल उत्तरी और पूर्वी प्रांतों के लोगों को अपना प्रशासन चुनने की सुविधा मुहैया कराता है। श्रीलंका को अगर इस अंधेर से बाहर निकलना है तो देश के सभी हिस्सों में लोगों को ऐसी सरकार मिलनी चाहिए जिस पर वे भरोसा कर सकें।
(लेखक श्रीलंका की नैशनल पीस काउंसिल के एग्जिक्यूटिव डायरेक्टर हैं)
डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं