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congress protest over ED probe against Rahul Gandhi is more like selfie contest


उमेश चतुर्वेदी
प्रवर्तन निदेशालय के सामने राहुल गांधी की पेशी क्या कांग्रेस के लिए वैसी ही स्थिति बना सकती है, जैसी 45 साल पहले बनी थी? कांग्रेस के कार्यकर्ता जिस तरह राहुल गांधी की पेशी को लेकर प्रवर्तन निदेशालय के खिलाफ हंगामा कर रहे हैं, जिस तरह पुलिस वालों के साथ जगह-जगह कांग्रेसी कार्यकर्ताओं ने धक्का-मुक्की की है, उससे कुछ ऐसा ही लगता है। 3 अक्टूबर 1977 को जब भ्रष्टाचार के आरोप में तत्कालीन गृहमंत्री चौधरी चरण सिंह के निर्देश पर इंदिरा गांधी की गिरफ्तारी हुई थी, तब भी हंगामा हुआ था। अंतर बस इतना है कि तब संजय ब्रिगेड कहे जाने वाले युवा कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने प्रशासन और पुलिस के खिलाफ वाकई हंगामा किया था, जबकि इस बार कांग्रेस के नेताओं में हंगामे का फोटो सेशन कराने की होड़ लगी है। ऐसा लग रहा है कि उनकी कोशिश विरोध से ज्यादा अपने विरोध को पार्टी आलाकमान की नजर में लाना है।

रसूख का असर
हम अपने देश में मजबूत लोकतांत्रिक ढांचा होने का दावा करते नहीं थकते। लेकिन जब भी कोई रसूखदार किसी प्रशासनिक या न्यायिक कार्यवाही के दायरे में आता है, अपना लोकतंत्र एकदम से खतरे में आ जाता है। राहुल गांधी से हो रही प्रवर्तन निदेशालय की पूछताछ के मामले में भी ऐसा ही हो रहा है। कांग्रेस और उसके नेता खुद को पीड़ित बता रहे हैं।

ध्यान रहे, नैशनल हेरल्ड की प्रकाशक कंपनी असोसिएटेड जर्नल लिमिटेड यानी एजेएल के मामले में राहुल गांधी से हो रही इस पूछताछ के पीछे न्यायिक तंत्र की बड़ी भूमिका है। एजेएल मामले में हेरफेर का आरोप लगाते हुए बीजेपी नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने 2012 में दिल्ली की एक निचली अदालत में मामला दर्ज कराया था। उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और राहुल गांधी को आरोपी बनाया था। इसके खिलाफ कांग्रेस पहले दिल्ली हाईकोर्ट और फिर सुप्रीम कोर्ट जा चुकी है। दिल्ली हाई कोर्ट तो इस केस में आपराधिक मामला चलाने का आदेश दे चुका है। सुप्रीम कोर्ट ने निचली अदालत की कार्यवाही पर रोक लगाने से ना सिर्फ इनकार किया, बल्कि उसे सुनवाई जारी रखने को भी कहा। इसके बाद प्रवर्तन निदेशालय ने साल 2014 में इस मामले की जांच शुरू की।

राहुल गांधी की ED जांच के खिलाफ मुंबई में कांग्रेसियों का प्रदर्शन (फोटोः ANI)

जब सुब्रमण्यम स्वामी ने अदालत को शिकायत दी तो केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी और जब प्रवर्तन निदेशालय के पास मामला पहुंचा, तब भी कांग्रेस ही सत्ता में थी। राजनीतिक दलों को चूंकि राजनीतिक दलों से ही लड़ना होता है, उन्हीं से सत्ता छीननी होती है, इसीलिए न्यायालय के अधीन चल रहे मामलों में भी जब उनके खिलाफ कुछ ऊंच-नीच हो जाती है तो वे सत्ताधारी दल को ही निशाना बनाते हैं।

राहुल गांधी से हो रही पूछताछ की टाइमिंग पर इन दिनों राजनीतिक गलियारों में सवाल तैर रहे हैं। पूछा जा रहा है कि फिलहाल कोई चुनाव नहीं तो फिर गांधी परिवार को प्रवर्तन निदेशालय के जरिए निशाने पर क्यों लिया जा रहा है? मौजूदा राजनीतिक हालात के हिसाब से ऐसा सवाल स्वाभाविक भी है। अभी लोकसभा चुनाव में करीब पौने दो साल की देर है। बहरहाल, बीजेपी समर्थकों की प्राथमिकता कुछ दूसरी है। उनका आरोप है कि सिर्फ पचास लाख की बुनियादी पूंजी के दम पर यंग इंडिया लिमिटेड के जरिए गांधी परिवार ने एजेएल की दो हजार करोड़ की संपत्ति पर कब्जा कर लिया। इतने बड़े भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्रवाई होने में इतनी देर क्यों हुई? साफ है कि सवाल दोनों तरफ हैं और दोनों ओर से मिल रहे जवाब एक-दूसरे को स्वीकार नहीं हैं।

राहुल गांधी इस पूरी प्रक्रिया में खुद को शहीद दिखाने की कोशिश कर रहे हैं। अपने कार्यकर्ताओं की नजर में वह कुछ हद तक ऐसा हो सकते हैं, लेकिन आम लोगों की नजर में ज्यादा सहानुभूति हासिल नहीं कर पाए हैं।

राहुल गांधी के सलाहकार चाहते तो उन्हें ऐसा कुछ करने का सुझाव देते, जिससे वह गंभीर और बड़ी शख्सियत बनकर उभरते। प्रवर्तन निदेशालय वह पूरी गरिमा के साथ जाते और कार्यकर्ताओं को धक्का-मुक्की से आगाह करते। अखबारों में छपी खबरें यदि सच हैं तो राहुल गांधी ने अपना ग्रेस इस दौरान खोया है। खबरों के मुताबिक, पहले दिन की पूछताछ के बाद उन्होंने प्रवर्तन निदेशालय के अधिकारियों से कहा था कि अमुक बिजनेसमैन के नौकर से कह देना कि मैं आया था। राहुल गांधी ने अगर ऐसा कहा है तो ऐसी भाषा कम से कम उनके जैसे स्तर के व्यक्ति को शोभा नहीं देती। वैसे राजस्थान और छत्तीसगढ़ में उनकी ही पार्टी कांग्रेस की सरकारें हैं। दोनों ही जगहों पर उस बिजनेसमैन को बड़े ठेके दिए गए हैं, जिनका जिक्र राहुल ने कथित तौर पर किया था। ऐसा कैसे हो सकता है कि उसी बिजनेसमैन का साथ बीजेपी के खिलाफ तंज का जरिया बने और कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों की अनदेखी कर दी जाए। राहुल अगर पूरी गरिमा के साथ प्रवर्तन निदेशालय के सामने प्रस्तुत हुए होते तो उनका राजनीतिक कद बढ़ता। उनकी ही एक राज्य सरकार के एक मंत्री कहते हैं कि राहुल गांधी चौबीस घंटे वाले राजनेता नहीं हैं। इसीलिए वह मौका मिलते ही विदेश आराम करने चले जाते हैं और अक्सर राजनीतिक गलतियां करते रहते हैं। एजेएल मामले में भी कहीं न कहीं ऐसा होता दिख रहा है।

लंबा है इंतजार
अक्टूबर 1977 में इंदिरा की गिरफ्तारी के बाद संजय ब्रिगेड ने चाहे जितना हंगामा किया हो, लेकिन यह भी सच है कि इंदिरा के पक्ष में तब कोई बड़ी सहानुभूति लहर नहीं बन पाई थी। हां, इसका असर यह जरूर हुआ था कि वह कर्नाटक के चिकमगलूर से हुए उपचुनाव में जीत गई थीं। यह जीत ही बाद में कांग्रेस की हिली हुई बुनियाद को टिकाने में मददगार बनी। लेकिन राहुल और आज की कांग्रेस के साथ फिलहाल ऐसा होता नजर नहीं आ रहा। इस पूछताछ और हंगामे की वजह से कांग्रेस क्या हासिल कर पाएगी, इसे देखने के लिए लंबा इंतजार करना पड़ेगा।

डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं





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By admin