अधिवेशन में नौ अलग-अलग प्रस्ताव पारित किए गए जिनमें इस्लामोफ़ोबिया, देश के हालात, शिक्षा, इजराइल-फिलिस्तीन मसला समेत अन्य शामिल हैं। अधिवेशन में इस्लामोफ़ोबिया को लेकर भी प्रस्ताव पारित किया गया, जिसमें कहा गया है कि इस्लामोफ़ोबिया सिर्फ धर्म के नाम पर शत्रुता ही नहीं, बल्कि इस्लाम के खिलाफ भय और नफरत को दिल और दिमाग पर हावी करने की मुहिम है। प्रस्ताव में आरोप लगाया गया है, ‘इसके कारण आज हमारे देश को धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक इंतहापसंदी (अतिवाद) का सामना करना पड़ रहा है।’ देश में हाल में घटी सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं और ज्ञानवापी और मथुरा की शाही ईदगाह मस्जिद समेत अन्य धार्मिक स्थानों को लेकर हुए विवादों को देखते हुए जमीयत के इस सम्मेलन को अहम माना जा रहा है।
सम्मेलन में ज्ञानवापी समेत अन्य धार्मिक मुद्दों से निपटने को लेकर रणनीति तय की जाएगी। जमीयत की ओर से जारी एक बयान में कहा गया है कि संगठन के लगभग दो हजार सदस्यों और गणमान्य अतिथियों ने अधिवेशन में भाग लिया। अधिवेशन में सांसद बदरुद्दीन अजमल ने भी हिस्सा लिया। जमीयत-उलेमा-ए-हिंद की स्थापना 1920 में हुई थी। इसने आजादी के आंदोलन में अहम भूमिका निभाई थी। संगठन ने 1947 में बंटवारे का विरोध किया था। जमीयत देश में मुसलमानों के कल्याण के लिए काम करने वाला सबसे बड़ा संगठन है।
अधिवेशन में पारित एक अन्य प्रस्ताव में दावा किया गया है कि देश धार्मिक बैर और नफरत की आग में जल रहा है। चाहे वह किसी का पहनावा हो, खान-पान हो, आस्था हो, किसी का त्योहार हो, बोली (भाषा) हो या रोज़गार, देशवासियों को एक-दूसरे के खिलाफ उकसाने और खड़ा करने के कथित दुष्प्रयास हो रहे हैं। प्रस्ताव के मुताबिक सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि सांप्रदायिकता की ये काली आंधी मौजूदा सत्ता दल और सरकारों के संरक्षण में चल रही है, जिसने बहुसंख्यक वर्ग के दिमागों में जहर भरने में कोई कसर नहीं छोड़ रखी है। इसमें आरोप लगाया है कि आज देश की सत्ता ऐसे लोगों के हाथों में आ गई है जो देश की सदियों पुरानी भाईचारे की पहचान को बदल देना चाहते हैं।
प्रस्ताव में कहा गया है कि मुस्लिमों, पहले के मुस्लिम शासकों और इस्लामी सभ्यता एवं संस्कृति के खिलाफ भद्दे और निराधार आरोपों को बड़ी तेजी से से फैलाया जा रहा है। प्रस्ताव में आरोप लगाया गया है कि सत्ता में बैठे लोग उनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई करने के बजाय उन्हें आजाद छोड़ कर और उनका पक्ष लेकर उन्हें बढ़ावा दे रहे हैं। प्रस्ताव में कहा गया है कि जमीयत उलेमा-ए-हिंद इस बात को लेकर चिंतित है कि खुलेआम भरी सभाओं में मुसलमानों और इस्लाम के खिलाफ शत्रुता के इस प्रचार से पूरी दुनिया में हमारे प्रिय देश की बदनामी हो रही है और इससे देश विरोधी तत्वों को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने मौका मिल रहा है। इसमें यह भी कहा गया है कि राजनीतिक वर्चस्व बनाए रखने के लिए किसी एक वर्ग को दूसरे वर्ग के खिलाफ भड़काना और बहुसंख्यकों की धार्मिक भावनाओं को अल्पसंख्यकों के खिलाफ उत्तेजित करना न तो देश के साथ वफादारी है और न ही इसमें देश की भलाई है, बल्कि ये खुली दुश्मनी है।
बयान के अनुसार, जमीयत ने हिंसा भड़काने वालों को सजा दिलाने के लिए एक अलग कानून बनाने और सभी कमजोर वर्ग विशेषकर मुस्लिम अल्पसंख्यक वर्ग को सामाजिक और आर्थिक रूप से अलग-थलग करने के कथित दुष्प्रयासों पर रोक लगाने की मांग भी की गई है जमीयत ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव के अनुसार, इजराइल को गाज़ा की 15 साल से जारी नाकाबंदी को तुरंत हटाने और क्रॉसिंग पॉइंट खोलने की मांग की गयी। साथ में मांग की कि अल-अक्सा मस्जिद में नमाज़ियों की बिना रोक-टोक आवाजाही सुनिश्चित की जाए और उस पर से इजराइली क़ब्ज़ा जल्द से जल्द समाप्त हो।
जमीयत ने भी मांग की है कि सभी धर्मों के बीच आपसी सद्भाव का संदेश देने के लिए संयुक्त राष्ट्र की ओर से ‘इस्लामोफोबिया की रोकथाम का अंतरराष्ट्रीय दिवस’ हर साल 14 मार्च को मनाया जाए। जमीयत के बयान के मुताबिक, मुस्लिम संगठन ने सामाजिक सौहार्द के लिये सद्भावना मंच गठित किए जाने के प्रस्ताव को भी मंज़ूरी दी जिसके तहत जमीयत ने देश में 1,000 सद्भावना मंच स्थापित करने का लक्ष्य निर्धारित किया है।