‘तलाक-ए-हसन’ के अंतर्गत तलाक को महीने में एक बार, तीन महीने तक बोला जाता है। यदि इस अवधि के दौरान साथ रहना फिर से शुरू नहीं किया जाता है, तो तीसरे महीने में तीसरी बार ‘तलाक’ कह देने के बाद तलाक को औपचारिक मान्यता मिल जाती है। हालांकि, यदि पहले या दूसरे महीने में ‘तलाक’ शब्द के उच्चारण के बाद पति-पत्नी का साथ रहना फिर से शुरू हो जाता है, तो यह माना जाता है कि दोनों पक्षों में सुलह हो गई है।
एक मुस्लिम महिला ने अधिवक्ता अश्विनी कुमार दुबे के माध्यम से याचिका दायर की है। महिला ने केंद्र से लिंग एवं धर्म से इतर सभी नागरिकों के लिए तलाक की एक समान प्रक्रिया का दिशानिर्देश तैयार करने की भी मांग की है। वरिष्ठ अधिवक्ता पिंकी आनंद ने मामले को तत्काल सूचीबद्ध करने के लिए पीठ के समक्ष उल्लेख किया और बताया कि याचिका ‘तलाक-ए-हसन’ को चुनौती देने से संबंधित है।
इससे संबंधित दो नोटिस पहले ही हो चुके जारी यह तीसरा
उन्होंने कहा कि वकील के माध्यम से याचिकाकर्ता को ‘तलाक-ए-हसन’ के लिए दो नोटिस जारी किए जा चुके हैं और तीसरा नोटिस अंतिम होगा। पीठ ने पूछा, ‘नोटिस कब जारी किया गया था?’ इसके जवाब में वरिष्ठ अधिवक्ता ने कहा कि पहला नोटिस 19 अप्रैल को और दूसरा अब जारी किया गया है। पीठ ने कहा कि हम अदालत के पुन: खुलने के बाद इस मामले को रखेंगे। कोई जल्दबाजी नहीं है। इस पर वकील ने कहा कि तब तक तो सब कुछ खत्म हो जाएगा। पीठ ने कहा, ‘ठीक है, आप अगले सप्ताह उल्लेख कर सकते हैं। आप अगले सप्ताह एक मौका ले सकते हैं।’
कई इस्लामिक राष्ट्रों में प्रतिबंधित है यह प्रथा
अपनी याचिका में, याचिकाकर्ता ने कहा है कि ‘तलाक-ए-हसन’ और ‘एकतरफा न्यायेतर तलाक’ के अन्य रूपों का प्रचलन न तो मानवाधिकारों और लैंगिक समानता के आधुनिक सिद्धांतों के साथ सामंजस्यपूर्ण है और न ही इस्लामी आस्था का अभिन्न अंग। उन्होंने दावा किया कि कई इस्लामी राष्ट्रों ने इस तरह की प्रथा को प्रतिबंधित कर दिया है, जबकि यह प्रथा आमतौर पर भारतीय समाज और खासतौर पर, याचिकाकर्ता की तरह मुस्लिम महिलाओं को ‘परेशान’ करती है। याचिका में मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) आवेदन अधिनियम, 1937 की धारा 2 को संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 21 और 25 का कथित रूप से उल्लंघन करने के लिए अमान्य और असंवैधानिक घोषित करने की मांग की गई है।