हिंदुओं को मिलेगा अल्पसंख्यक दर्जा?
याचिकाकर्ता का दावा- 10 राज्यों में हिंदू अल्पसंख्यक हैं लेकिन वे अल्पसंख्यकों के लिए बनाई गई योजनाओं का लाभ उठाने में सक्षम नहीं हैं। वैकल्पिक तौर पर निर्देश दिया जाए कि लद्दाख, मिजोरम, लक्षद्वीप, कश्मीर, नगालैंड, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, पंजाब और मणिपुर में रहने वाले यहूदी, बहाई और हिंदू धर्म के अनुयायी अपनी इच्छा और टीएमए पई के फैसले की भावना के तहत शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना और संचालन कर सकते हैं।
अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय का जवाब- याचिकाकर्ता का आरोप है कि यहूदी, बहाई और हिंदू धर्म के अनुयायी जो लद्दाख, मिजोरम, लद्वाद्वीप, कश्मीर, नगालैंड, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, पंजाब और मणिपुर में वास्तविक अल्पसंख्यक हैं अपनी पसंद से शैक्षणिक संस्थान की स्थापना और संचालन नहीं कर सकते, गलत है। यहूदी, बहाई और हिंदू धर्म के अनुयायी या वे जो राज्य की सीमा में अल्पसंख्यक के तौर पर चिह्नित किए गए हैं, उल्लेखित किए गए राज्यों में क्या अपनी पसंद से शैक्षणिक संस्थान की स्थापना और संचालन कर सकते हैं, इसपर विचार राज्य स्तर पर किया जा सकता है। हिंदू, यहूदी, बहाई धर्म के अनुयायी उक्त राज्यों में अपनी पसंद के शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना कर सकते हैं और उन्हें चला सकते हैं एवं राज्य के भीतर अल्पसंख्यक के रूप में उनकी पहचान से संबंधित मामलों पर राज्य स्तर पर विचार किया जा सकता है। ध्यान रहे कि सुप्रीम कोर्ट ने टीएमए पई फाउंडेशन मामले में व्यवस्था दी थी की राज्य को अपनी सीमा में अल्पसंख्यक संस्थानों में राष्ट्रहित में उच्च दक्षता प्राप्त शिक्षक मुहैया कराने के लिए नियामकीय व्यवस्था लागू करने का अधिकार है ताकि शिक्षा में उत्कृष्टता प्राप्त की जा सके।
याचिकाकर्ता की मांग- देश के विभिन्न राज्यों में अल्पसंख्यकों की पहचान के लिए दिशानिर्देश तय करने के निर्देश दिया जाए। लद्दाख, मिजोरम, लक्षद्वीप, कश्मीर, नगालैंड, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, पंजाब, मणिपुर जैसे राज्यों में अल्पसंख्यकों की योजनाओं का लाभ नहीं मिल पाता है।
केंद्र का जवाब- राष्ट्रीय अल्पसंख्यक शिक्षा संस्थान अधिनियम 2004 कहता है कि राज्य सरकारें भी राज्य की सीमा में धार्मिक और भाषायी समुदायों को अल्पसंख्यक समुदाय घोषित कर सकती हैं। उदाहरण के लिए महाराष्ट्र सरकार ने राज्य की सीमा में यहूदियों को अल्पसंख्यक घोषित किया है जबकि कर्नाटक सरकार ने उर्दू, तेलुगु, तमिल, मलयालम, मराठी, तुलु, लमणी, हिंदी, कोंकणी और गुजराती भाषाओं को अपनी सीमा में अल्पसंख्यक भाषा अधिसूचित किया है। इसलिए राज्य भी अल्पसंख्यक समुदाय अधिसूचित कर सकते हैं।
समानता के अधिकार का उल्लंघन है अल्पसंख्यक आयोग?
याचिकाकर्ता का दावा- राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग कानून, 1992 या राष्ट्रीय अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान कानून, 2004 को नागरिकों के बीच समानता के मौलिक अधिकार का विरोधी है।
केंद्र का जवाब- अल्पसंख्यकों में भी सिर्फ वंचित तबकों के विद्यार्थियों को ही योजनाओं का लाभ दिया जाता है, पूरे समुदाय को नहीं। इस तरह, अल्पसंख्यकों के लिए राष्ट्रीय आयोग अधिनियम 1992 न तो मनमाना है या न ही अतार्किक है और न ही संविधान के किसी प्रावधान का उल्लंघन करता है। मंत्रालय ने उस दावे को भी अस्वीकार कर दिया जिसमें कहा गया कि धारा-2(एफ) केंद्र को अकूत ताकत देती है। राष्ट्रीय अल्पसंख्यक क्षैणिक संस्थान कानून की धारा 2(एफ) (Section 2(f) of NCMEI Act) केंद्र सरकार को अधिकार देता है कि वो देश में अल्पसंख्यकों की पहचान करके उन्हें अल्पसंख्यक समुदाय का दर्जा दे।केंद्र सरकार ने 29 अक्टूबर, 2004 को धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों के लिए एक राष्ट्रीय आयोग का गठन करने का संकल्प लिया और आयोग के संदर्भ की शर्तें धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों के बीच सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों की पहचान के लिए मानदंड सुझाने के लिए थीं। अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय की स्थापना सकारात्मक कार्रवाई और समावेशी विकास के माध्यम से अल्पसंख्यकों की सामाजिक आर्थिक स्थिति में सुधार के लिए की गई थी ताकि प्रत्येक नागरिक को एक जीवंत राष्ट्र के निर्माण में सक्रिय रूप से भाग लेने का समान अवसर मिले।
याचिकाकर्ता का दावा- असली अल्पसंख्यकों को लाभ देने से इनकार और योजना के तहत ‘मनमाना और अतार्किक’ वितरण उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है।
केंद्र सरकार का जवाब- कोई समुदाय धार्मिक अल्पसंख्यक का दर्जा मिलने भर से सरकारी योजनाओं का स्वतः हकदार नहीं हो जाता है बल्कि योजनाएं उस समुदाय के आर्थिक और सामाजिक रूप से वंचित तबकों के लिए होती हैं। अल्पसंख्यक हितैषी ज्यादातर योजनाओं में नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में प्रवेश में आरक्षण की सुविधा शामिल नहीं है बल्कि इसका मकसद लक्षित अल्पसंख्यक समुदाय का शैक्षणिक स्तर और रोजगार, कौशल, आंट्रप्रन्योरशिप विकास में इनकी भागीदारी बढ़ाना होता है। साथ ही, उनके इलाकों में सामान्य मूलभूत सुविधाएं की कमी पाटने का लक्ष्य होता है। योजनाओं का लाभ भी अल्पसंख्यक समुदाय की पूरी आबादी को नहीं बल्कि उनमें सबसे पिछड़े समूह, मसलन महिलाओ, बच्चों और गरीब लोगों को ही दिया जाता है। इसलिए, इससे संविधान में वर्णित समानता के अधिकार का हनन नहीं होता है।
अल्पसंख्यक का दर्जा कौन दे- केंद्र या राज्य?
याचिकाकर्ता की मांग- केंद्र नहीं, राज्य तय करें कौन से समुदाय अल्पसंख्यक, कौन से बहुसंख्यक। संविधान के अनुच्छेद 30 में कहा गया है कि धर्म या भाषा के आधार पर चिह्नित अल्पसंख्यकों को अपने पसंद के शैक्षणिक संस्थान खोलने और उनका संचालन करने का अधिकार है। धार्मिक या भाषाई आधार पर वास्तविक अल्पसंख्यकों को अल्पसंख्यक हितैषी योजनाओं से वंचित करना अनुच्छेद 14 और 21 के तहत मिले अधिकारों का उल्लंघन है जिनमें कहा गया है कि किसी भी व्यक्ति को कानूनी प्रक्रिया के अलावा किसी भी सूरत में उसके जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकेगा।
केंद्र सरकार का जवाब- सिर्फ राज्य सरकारों को ही किसी समुदाय और समुदायों को अल्पसंख्यक दर्जा दिए जाने का अधिकार नहीं दिया जाना चाहिए क्योंकि ऐसा करने पर सुप्रीम कोर्ट के कई फैसले प्रभावित होंगे। साथ ही इससे संवैधानिक प्रावधानों का भी उल्लंघन होगा। अल्पसंख्यकों के लिए राष्ट्रीय आयोग अधिनियम1992 को संसद ने संविधान के अनुच्छेद 246 के तहत लागू किया है, जिसे सातवीं अनुसूची के तहत समवर्ती सूची की प्रवेशिका 20 के साथ पढ़ा जाना चाहिए। यदि यह विचार स्वीकार किया जाता है कि अल्पसंख्यकों के मामलों पर कानून बनाने का अधिकार केवल राज्यों को है तो ऐसी स्थिति में संसद इस विषय पर कानून बनाने की उसकी शक्ति से वंचित कर दी जाएगी जो संविधान के विरोधाभासी होगा।
बहुसंख्यकों को योजनाओं का लाभ दिए जाने पर आपत्ति
शीर्ष अदालत ने इससे पहले केंद्र द्वारा पांच समुदायों मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध और पारसी को अल्पसंख्यक घोषित किए जाने के खिलाफ विभिन्न उच्च न्यायालयों में दाखिल याचिकाओं को उच्चतम न्यायालय में स्थानांतरित करने और मुख्य याचिका के साथ शामिल करने की अनुमति दी थी। सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से पूछा था कि आखिर जिन राज्यों में जो समुदाय आबादी में कम है, उन्हें अल्पसंख्यक का दर्जा क्यों नहीं दिया जाना चाहिए। केंद्र सरकार ने यह कहते हुए सुप्रीम कोर्ट से याचिका खारिज करने का आग्रह किया कि यह न तो आम लोगों और ना देश के हित में है। दरअसल, बीजेपी नेता अश्विनी उपाध्याय और मामले में याचिकाकर्ता अश्विनी उपाध्याय ने जम्मू-कश्मीर में मुसलमानों को अल्पसंख्यक समुदाय के लिए घोषित योजनाओं का लाभ दिए जाने पर आपत्ति जताई जहां मुसलमान बहुसंख्यक हैं और हिंदू अल्पसंख्यक। इसी तरह, पंजाब में सिख ऐसी योजनाओं का लाभ उठा रहे हैं जबकि वहां हिंदू अल्पसंख्यक है और सिख बहुसंख्यक। उन्होंने मिजोरम, नागालैंड, मणिपुर, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, लद्दाख और लक्षद्वीप में इसाइयों को अल्पसंख्यक योजनाओं का लाभ दिए जाने का भी विरोध किया जहां इसाई समुदाय बहुसंख्यक है।