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centre and state legislative relations governor appointment article : राज्य सरकारों से क्यों हो रही अनबन, क्या राज्यपालों की नियुक्ति का तरीका बदलना चाहिए?


पिछले कुछ दिनों में देखने में आया कि केंद्र और राज्यों के बीच अधिकारियों को लेकर खींचतान चल रही है। चाहे वह आईएएस अधिकारियों की प्रतिनियुक्ति का मसला हो, राज्यपालों से राज्य सरकारों की अनबन हो, जीएसटी से मिले पैसों का बंटवारा हो या परिसीमन का सवाल हो, विवाद लगातार सामने आ रहे हैं। इसी मसले पर राज्यसभा के पूर्व महासचिव और रिटायर्ड आईएएस अधिकारी योगेंद्र नारायण से दीपक तैनगुरिया ने बात की। प्रस्तुत हैं मुख्य अंश :

सवाल :क्या बहुमत की सरकारें संघवाद के लिए मुश्किल पैदा करती हैं?

जवाब : बहुमत की सरकारों के लोकतंत्र में फायदे अधिक हैं, खतरे नहीं। अनुच्छेद 356 इसलिए बनाया गया क्योंकि अंग्रेज एक मजबूत सरकार और केंद्रीय नियंत्रण चाहते थे। संविधान बनने के समय ऐसी परिस्थितियां थीं जो देश को तोड़ सकती थीं। इसलिए केंद्र को मजबूत किया गया और अनुच्छेद 356 कायम रखा गया। लेकिन संघवाद में इसका कम से कम उपयोग होना चाहिए। हमारी कानून व्यवस्था और न्यायपालिका यह सुनिश्चित करती है कि अनुच्छेद 356 की भावना और इसका उद्देश्य अक्षुण्ण बना रहे। प्रजातंत्र भी तभी मजबूत होगा जब इसका दुरुपयोग रोका जाए। बहुमत की सरकार इसलिए भी इसका दुरुपयोग नहीं कर सकती क्योंकि राज्य सभा इसके दुरुपयोग का प्रति परीक्षण करती है।

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सवाल : केंद्र सरकार ने आईएएस कैडर नियम 1954 में संशोधन करने का प्रस्ताव दिया था जिसमें कहा गया कि अधिकारियों द्वारा प्रतिनियुक्ति पर कोई असहमति बनती है तो अंतिम फैसला केंद्र सरकार की तरफ से होगा। इसका कई राज्यों ने विरोध किया है…

जवाब : आईएएस का कार्यक्षेत्र केंद्र सरकार का ही है। केंद्र सरकार की नीतियां दो रूपों में देखी जा सकती हैं। एक प्रशासनिक जरूरतों के रूप में और दूसरा राजनीतिक कारणों से। पिछले दो-तीन सालों से देखा जा रहा था कि राज्य सरकारों ने इतनी सुविधाएं दे दी थीं कि अधिकारी केंद्र में नहीं आना चाहते थे, जिससे यहां कमी हो रही थी। इसलिए यह संशोधन किया गया है और मेरे अनुसार यह बिल्कुल जायज है। अगर केंद्र में अखिल भारतीय सेवा के अफसर नहीं आएंगे तो राज्य के अनुभव केंद्र को नहीं मिलेंगे। और जब केंद्र के लोग राज्य में नहीं जाएंगे तब केंद्र की सरकारी नीतियों की जानकारी राज्य में नहीं पहुंचेगी। यह एकतरफा प्रवाह नहीं हो सकता।

सवाल : राज्यपाल के कार्य करने के तरीके को लेकर केंद्र और राज्य सरकारों में आए दिन विवाद हो रहा है…

जवाब : राज्यपाल की नियुक्ति राज्य की सतारूढ़ पार्टी की सहमति से होनी चाहिए। यही परंपरा 1970 या 1975 तक थी। अब तो राज्यपाल राजनीतिक रूप से चुने जाते हैं, इसलिए प्राय: शुरुआत से ही राज्य का अविश्वास बन जाता है। जब राजनीतिक पार्टी से ही राज्यपाल नियुक्त होता है तो केंद्र से उस पर दबाव रहता है। इन सब से राज्य की सत्तारूढ़ पार्टी और राज्यपाल के बीच विश्वास कम हो जाता है। मेरी राय में राज्यपाल की नियुक्ति एक कमेटी द्वारा की जानी चाहिए जिसमें प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और लोक सभा के नेता विपक्ष शामिल हों। अभी जो प्रथा आज चल रही है, वह गलत है।

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सवाल : बीते संसदीय सत्र में प्रधानमंत्री ने कहा कि जीएसटी परिषद की रचना भारत के सशक्त संघवाद के लिए एक उत्तम संरचना का नमूना है। पर कई राज्य सरकारें अपने हिस्से को लेकर संतुष्ट नहीं हैं। इसे कैसे बेहतर किया जा सकता है?

जवाब : जीएसटी परिषद से बेहतर सहयोगी संघवाद का उदाहरण नहीं मिलेगा। क्योंकि राज्य ने अपने वित्त का नियंत्रण केंद्र के साथ बांटने की सहमति दी। सहमति का सिद्धांत है- एक राष्ट्र, एक कर। अब बात आती है मुआवजे में कमी की तो प्रावधान है कि राज्य कर में अगर 14 प्रतिशत बढ़ोतरी नहीं हुई, तो उस स्थिति में कमी की पूर्ति केंद्र सरकार करेगी। ये प्रावधान 5 साल के लिए था लेकिन राज्य सरकारों के अनुरोध पर इसे बढ़ा दिया गया है। हो सकता है इसकी समय सीमा और बढ़े।

सवाल : वर्तमान समय में संघवाद को बेहतर करने के लिए कौन से कदम उठाए जा सकते हैं?

जवाब : हमें भारत को अर्द्ध-संघीय मानना चाहिए। जब यूएसए बना, तब राज्यों ने अपने अधिकार केंद्र सरकार को दे दिए। भारत में ऐसा नहीं था। संविधान में जिक्र है कि भारत राज्यों का संघ है, अर्थात इसे यूनियन ही माना गया है। वित्त बंटवारे में केंद्र सरकार अधिक ताकतवर है। संविधान में तीन सूचियां भी हैं, जब तक केंद्र और राज्य इसके अनुरूप कार्य करते हैं, यह ढांचा बना रहेगा। कृषि कानूनों के मामले में मैं इस तर्क से सहमत हूं कि कृषि राज्य का विषय है। यह दिखाकर कि कृषि-व्यापार केंद्र के अंदर है, ये तीन कानून बनाए गए। यह संवैधानिक तौर पर सही नहीं था। यह राज्य की शक्तियों का अतिक्रमण था। भारत में संघवाद एक सफल प्रणाली है और सुप्रीम कोर्ट इस पर निगरानी रखे हुए है।

सवाल : लोकसभा में सीटों के परिसीमन की बात की जाती रही है। प्रणब मुखर्जी ने सीटों की संख्या 1000 करने को कहा था। नई संसद भी इसी हिसाब से बन रही है। इसके क्या निहितार्थ हो सकते हैं?

जवाब : मेरे विचार में यह गलत है कि 1971 की जो जनगणना है उसी के आधार पर सीटों का बंटवारा किया जाए। अब इसे नए आंकड़ों के आधार पर करना चाहिए। 2011 के अनुसार 800-900 सीटें हो जाएंगी। जब प्रावधान है कि चुनाव मतों के आधार पर होंगे और मत जनसंख्या के आधार पर होंगे तो इस आधार को नहीं बदलना चाहिए। दक्षिणी राज्यों की चिंता जायज है क्योंकि उन्होंने जनसंख्या को काबू किया, लेकिन इस बात की चिंता नहीं करनी चाहिए कि बहुत ज्यादा संख्या उत्तरी राज्यों को चली जाएगी। जनसंख्या और मत का सिद्धांत सर्वोपरि है।



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