जवाब: इस घटनाक्रम से भारतीयों को बहुत खुश होने की जरूरत नहीं है लेकिन इससे यह बात साबित होती है कि राजनीतिक समानता ही लोकतंत्र का तकाजा है। वर्ना 82 प्रतिशत गोरों के देश में छह प्रतिशत हिंदुस्तानियों के बीच का एक आदमी प्रधानमंत्री नहीं बन सकता था। यह स्थिति हमारे देश में कबूल नहीं होगी, क्योंकि हमारे यहां बहुमतवाद चल रहा है। यहां ऐसा ही व्यक्ति हमारा नेता बनता है जो न सिर्फ हमारे धर्म का हो बल्कि हमारी भाषा का भी हो। ऐसे निर्णयों का समर्थन करने वालों के लिए सुनक का ब्रिटिश प्रधानमंत्री बनना धक्का है क्योंकि दुनिया उधर नहीं जा रही है, जिधर बहुसंख्यक भारतीय सोच रहे थे। बड़ी बात यह है कि ब्रिटिश कंजरवेटिव पार्टी से भारतीय मूल का कोई व्यक्ति नेता चुना जाए, इसके लिए भारतीयों के लिए तो कम से कम खुश होने की कोई बात नहीं है। क्योंकि ब्रिटिश कंजरवेटिव पार्टी मोटे तौर पर मध्यम और उच्च मध्यम वर्ग के पक्ष में बोलती रही है। वह प्रवासियों के बारे में हमेशा बहुत सख्ती की बात करती रही है। अगर कंजरवेटिव पार्टी की चलती तो सुनक ब्रिटेन के नागरिक भी नहीं बन पाते, प्रधानमंत्री होने की तो बात तो दूर है।
सवाल: क्या इस घटनाक्रम से दुनिया के लोकतांत्रिक देशों को सीख लेने की जरूरत है?
जवाब: ब्रिटेन में लोकतंत्र पुराना होने के कारण यह दिखाई पड़ रहा है। यहां न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका में सचमुच परस्पर स्वायत्तता है। तभी तो सुनक के प्रधानमंत्री बनने के बाद वहां की सेना में कोई हड़बड़ी दिखाई नहीं पड़ रही है, ना ही वहां के प्रधानमंत्री कार्यालय में कोई गड़बड़ी दिखाई पड़ रही है। यह बात हमारे लिए सीखने की जरूरत है कि हम विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका पर अपनी जिद ना लादें। यह स्थिति भारतीय आचरण में सुधार की मांग करती है।
सवाल: इसे लेकर भारत में एक बहस छिड़ी है। एक वर्ग ऋषि सुनक के हिन्दू होने का जिक्र करते हुए गौरवान्वित महसूस कर रहा है जबकि दूसरा वर्ग कह रहा है कि भारत को इससे सबक लेने की जरूरत है। आप क्या कहेंगे?
जवाब: यहां तो हमारे संविधान में ही लिखा हुआ है कि एक बार अगर आप भारत के नागरिक हो गए तो धर्म, जाति व भाषा के बंधनों से ऊपर आपकी नागरिकता हो जाती है। हमें इसका ख्याल रखना होता है। इस मामले में हमने कुछ प्रगति जरूर की है। क्योंकि हमने एक गैर हिंदी भाषी देवेगौड़ा (एच डी देवगौड़ा) को प्रधानमंत्री के रूप में स्वीकार किया। उनके खिलाफ दिल्ली में या बनारस में या लखनऊ या फिर पटना में कोई विरोध जुलूस नहीं निकला कि भारत का प्रधानमंत्री हिंदी भाषी ही होना चाहिए। जहां तक धर्म की बात है, भारत ने 10 वर्ष तक एक सिख को प्रधानमंत्री के रूप में स्वीकार किया। वह पंजाबी भाषी थे और अल्पसंख्यक थे। इसके बावजूद उनका शासन कोई हिंदू विरोधी नहीं रहा। ना ही जरूरत से ज्यादा उनका सिखों के प्रति झुकाव दिखा। ऐसा इसलिए है कि क्योंकि इस संवैधानिक पद पर पहुंचने के बाद ज्यादातर लोगों को संविधान ज्यादा पवित्र दिखाई पड़ता है, बजाय भाषा या अपने धर्म के। आज की स्थिति अपवाद है।
सवाल: भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है लेकिन यहां की सरकार में एक भी मुसलमान मंत्री नहीं है और सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) में एक भी सांसद मुसलमान नहीं है जबकि भारत में इस समुदाय की आबादी करीब 20 फीसदी है?
जवाब: भारत की दूसरी सबसे बड़ी जनसंख्या के इस पक्ष को वे छोड़ना चाहते हैं और वह भी औरंगजेब या बाबर के कारण। क्योंकि वह इतिहास के 300 साल के बदलाव को नहीं समझ पाए हैं। उनके मन की सुई कहीं बाबर या औरंगजेब के समय में अटक गई है। यह उनके लिए अच्छा नहीं है और ना ही देश के लिए अच्छा है। आपको समझना पड़ेगा कि अमेरिका ने भी काले लोगों को वोट का अधिकार दिया। फ्रांस आज अल्जीरियाई मूल के काले लोगों को कोई भी खतरा नहीं मान रहा है। समझना यह भी पड़ेगा कि विश्व के देशों में आज बार-बार दक्षिणपंथी ताकतें चुनावों में पराजित हो रही हैं। अब हमें वैसी ही समावेशी राष्ट्रीयता की तरफ बढ़ना चाहिए, जो खान अब्दुल गफ्फार खान को भारत रत्न देने में संकोच ना महसूस करे और डॉ ए पी जे अब्दुल कलाम को राष्ट्रपति बनाने में घबराहट ना महसूस करे।
सवाल: मतलब, आपका कहना है कि भारत को भी ब्रिटेन की तरह इतना समावेशी होना चाहिए कि वह एक अल्पसंख्यक को अपने प्रधानमंत्री के रूप में स्वीकार कर ले?
जवाब: आज जो सत्ताधारी दल है या फिर यूं कहे कि जो सत्ताधारी जमात है उसे पूरे भारत के नक्शे को ध्यान में रखना चाहिए। ना कि धर्म के चश्मे से देश को देखना चाहिए। जब ऐसा होगा तो आपको इस सवाल का जवाब मिल जाएगा।