हालांकि ज्यादातर लोग लक्ष्मी देवी के वाहन उल्लू का आशीर्वाद पाने की कामना करते हैं। लेकिन तांत्रिक, काला जादू और अंधविश्वास के चक्कर में बड़ी संख्या में उल्लुओं की बलि दी जाती है। उत्तराखंड में उल्लुओं की दो दर्जन से ज्यादा प्रजातियां पाई जाती हैं। हर साल यहां वन विभाग की ओर से अलर्ट जारी किया जाता है जिससे निगरानी बढ़ाई जा सके। फील्ड स्टाफ की छुट्टियां कैंसल कर दी जाती हैं। उन्हें जंगलों में पट्रोलिंग बढ़ाने को कहा जाता है।
आमतौर पर मांसाहारी लोग भी उल्लू का मांस खाने के बारे में नहीं सोचते लेकिन अंधविश्वास के चक्कर में उल्लुओं की बलि की प्रथा चल निकली है। बताते हैं कि जयपुर, मेरठ से 300-400 रुपये के उल्लू खरीदकर लाने वाले लोग दिल्ली में 30 से 50 हजार ऐंठने की कोशिश करते हैं।
मान्यता एक ही है कि लक्ष्मी पूजा की रात उल्लू की बलि देने से अगले साल सुख-संपदा बनी रहेगी। जयपुर, अलवर और मथुरा के पास कोसी कलां इसके लिए कुख्यात है। बहेलिये दिवाली से पहले ही इस काम में जुट जाते हैं। उल्लू के शरीर के हर हिस्से की कीमत तय की जाती है।
उल्लू ही नहीं कछुए को लेकर भी तंत्र साधना की जाती है। धनतेरस से दिवाली तक कुछए के नाखूनों, पैर, गर्दन और दांत के साथ तंत्र साधनाएं की जाती हैं। तांत्रिक दावा करते हैं कि कुछए के इन अंगों को धन वाली जगहों पर रखने से समृद्धि आती है। इन सब अंधविश्वास के चक्कर में रहस्यमय पक्षी माने जाने वाले उल्लू और कछुए की जान पर बन आती है।
बताते हैं कि उल्लू की बलि देने वाले तांत्रिक उसे पहले शराब पिलाते हैं। दिवाली से करीब दो महीने पहले ही चुपके से लोग उल्लू खरीदना शुरू कर देते हैं। यूपी और उत्तराखंड के जंगलों के आसपास अलर्ट जारी किया गया है। उम्मीद की जानी चाहिए कि लोग इस अंधविश्वास से उबर कर उल्लू को अपनी उड़ान उड़ने देंगे।