पिछले डेढ़ दशकों में महिला अस्मिता और सुरक्षा की बातें सामाजिक मुद्दे के दायरे से बाहर निकलीं और अब यह चुनाव के केंद्र में आ चुकी हैं। दरअसल, महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए सशक्त कानून बनाने में निर्भया आंदोलन की बहुत बड़ी भूमिका रही। निर्भया केस के दौरान लोगों का गुस्सा सड़कों पर फूटा। देश भर में लोग सड़कों पर उतरे। इस आंदोलन का नतीजा यह हुआ कि केंद्र सरकार ने सख्त एंटी रेप लॉ बनाया, IPC के प्रावधानों में बदलाव हुआ और रेपिस्ट को फांसी की सजा देने तक का कानून बनाया गया।
दूर तक रहा असर
इसका असर सिर्फ कानून बनाने तक नहीं रहा। सियासत में भी इसका असर देखा गया। UPA-2 सरकार की बड़ी हार के पीछे अन्ना आंदोलन के साथ-साथ इस आंदोलन को भी बड़ा कारण माना गया। उसके तुरंत बाद 2016 में हिमाचल प्रदेश में हुए विधानसभा चुनाव में भी तब वीरभद्र सिंह की अगुआई वाली कांग्रेस सरकार की हार के पीछे रेप ही बड़ा मुद्दा बना। इस ट्रेंड से सियासत पर पड़ने वाले असर का संकेत मिलने के बाद तमाम राजनीतिक दल और सरकारें सतर्क हो गईं।
कुछ साल पहले जब आंध्र प्रदेश में जगन रेड्डी की सरकार ऐसे मुद्दों पर घिरी तो उन्होंने मात्र तीन महीने में रेप मामले की जांच कराने का कानून पास किया। इसके बाद दूसरे राज्यों से भी इसी तरह की मांग उठी। रेप के खिलाफ गुस्सा और राजनीति पर उसके बढ़ते असर के पीछे एक बड़ा कारण हाल की तारीख में महिलाओं का चुनावों में निर्णायक फैक्टर बनकर उभरना भी है। पिछले एक दशक में महिलाओं की चुनावी भागीदारी में बड़ा बदलाव आया है और वह सबसे बड़ा वोट बैंक बनी हैं। इतना ही नहीं, बिहार, उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्यों के अलावा तमाम राज्यों में महिलाओं ने पिछले कुछ चुनावों में पुरुषों से अधिक वोट डाले। लोकसभा से लेकर विधानसभा चुनाव तक सभी जगह इनकी वोटिंग में 10 से 15 फीसदी तक का भारी इजाफा हुआ। खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में तो इनकी संख्या और भी बढ़ी। किसी की सियासत को ऊपर या नीचे करने में महिलाओं ने बड़ी भूमिका निभाई। जाहिर है, रेप या महिला सुरक्षा ऐसा मसला है, जो महिलाओं सहित किसी भी संवेदनशील शख्स को बड़ी गहराई से झकझोरता है। ऐसे में कोई भी राजनीतिक दल हो, सब उनके गुस्से से बचते हुए उनके पक्ष में खड़े दिखना चाहते हैं। रेप ही नहीं, पिछले कुछ सालों में महिलाओं से जुड़े दूसरे मसले भी राजनीति के लिहाज से अहम साबित हुए। कई राज्यों में शराबबंदी की भी मांग उठी।
महिलाओं की अस्मिता और सुरक्षा से जुड़े मुद्दों ने राजनीति को प्रभावित किया, तो बात यहीं तक नहीं रुकी। महिलाओं से जुड़े दूसरे मसले भी राजनीति के फोकस में आए। फिर ये राजनीतिक दलों की प्राथमिकता में रखे गए। पीएम नरेंद्र मोदी ने पहल की और उनकी पार्टी ने उज्जवला योजना सहित तमाम मसलों में महिला वोटरों को लुभाने की कोशिश की। 2019 आम चुनाव में BJP को मिली बड़ी जीत में महिला वोटरों का बड़ा योगदान रहा। आम चुनाव के बाद आए आंकड़ों में यह बात साबित हुई कि PM मोदी की अगुआई में BJP को दूसरे दलों के मुकाबले महिलाओं के 6 से 8 फीसदी अधिक वोट मिले, जो जीत के अंतर को बड़ा करने में बड़ा फैक्टर बना। तब से लेकर अब तक विपक्षी दलों ने भी अलग-अलग राज्यों में इस तबके को फोकस में रखा। इसमें सबसे कॉमन फैक्टर बना महिलाओं को हर महीने तय पगार देने का एलान।
आधी आबादी की बढ़ती अहमियत
अभी कर्नाटक में कांग्रेस ने चुनाव से पहले इसकी घोषणा की थी और जीतने के बाद इसे लागू भी किया। मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान की अगुआई वाली BJP सरकार ने अपने राज्य में महिलाओं को हर महीने 1000 रुपये पगार देने की योजना लॉन्च की। इसके अलावा हर राज्य में अब चुनाव से पहले और चुनाव के बाद खासकर महिलाओं को प्रभावित करने वाली योजनाओं की डिमांड बढ़ गई है। इसके पीछे कहीं न कहीं इनका सरकार बनाने या बिगाड़ने वाली ताकत बनना भी है। जाहिर है, जब आधी आबादी की सियासी अहमियत बढ़ेगी तो उससे जुड़े मसले और उनके पक्ष में दिखने की होड़ भी उतनी ही तेजी से बढ़ेगी। लेकिन महिलाओं की यह भी मांग है कि सिर्फ सियासी मोहरे के रूप में उनका इस्तेमाल न हो, बल्कि जमीन पर भी उसका असर दिखे। वहीं, तस्वीर का दूसरा पहलू यह है कि संसद और विधानसभा में महिलाओं को आरक्षण देने की बात तो सभी राजनीतिक दल करते हैं, लेकिन अभी तक इसका कानून नहीं बनाया जा सका है।