क्या है मणिपुर विवाद?
मणिपुर में राज्य का बहुसंख्यक समुदाय मैतई एसटी तबके का दर्जा मांग कर रहा है। राज्य में इनकी आबादी 53 फीसदी है, लेकिन वहां के परंपरागत नियम के मुताबिक, मैतई समुदाय के लोग घाटी में रह सकते हैं, जो वहां के कुल क्षेत्रफल का 10 फीसदी इलाका है, जबकि राज्य का 90 फीसदी इलाका पहाड़ी है, जिन पर नगा और कुकी आदिवासी समुदाय का अधिकार है। वहां के नियम के मुताबिक, कोई भी गैर आदिवासी पहाड़ी इलाके में जमीन नहीं ले सकता।
मैतई समुदाय पिछले एक दशक से भी ज्यादा समय से खुद के लिए आदिवासी दर्जा मांग रहा है। यह मामला मणिपुर हाईकोर्ट पहुंचा, जहां अप्रैल में कोर्ट ने राज्य सरकार को निर्देश दिया कि वह मैतई समुदाय को एसटी सूची में शामिल करने पर विचार करने के लिए अपनी सिफारिशें केंद्र सरकार को भेजे। इसके लिए कोर्ट की ओर से चार हफ्ते का समय दिया गया। फैसला सामने आने के बाद नगा और कुकी समुदाय की तरफ से विरोध शुरू हो गया। नगा और कुकी मुख्य रूप से ईसाई हैं, जबकि मैतई में ज्यादातर लोग हिंदू हैं।
क्या है दोनों पक्षों की दलीलें?
नगा और कुकी का मानना है कि मैतई समुदाय को एसटी का दर्जा नहीं मिलना चाहिए, क्योंकि इससे पहाड़ी क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासियों के हितों को नुकसान होगा। जबकि मैतई की एसटी दर्जे के पीछे दलील है कि ब्रिटिशकाल में मैतई को एसटी दर्जा हासिल था, जो आजादी के बाद जाता रहा।
देश में एसटी समुदाय की स्थिति
- 1951 में एसटी समुदाय की तादाद 225 थी
- 700 तक आज पहुंच गई है यह तादाद
ये है मणिपुर की स्थिति
- 90% इलाका पहाड़ी, यहां अल्पसंख्यक नगा, कुकी रहते हैं
- 10% इलाका घाटी, यहां बहुसंख्यक मैतई आबादी रहती है
- 53% आबादी बहुसंख्यक मैतई समुदाय की है राज्य में
आदिवासी की क्या है परिभाषा?
मूल रूप से जिस भू-भाग पर जो जनजातियां आदिम समय से रहती आई हैं, जो वहां की मूल निवासी हैं, वे आदिवासी कहलाती हैं। इन्हें चिन्हित करने के लिए आदिवासी मामलों के मंत्रालय के कुछ मानक या पैमाने बनाए हैं। यह पैमाने हैं- आदिम विशेषताएं, विशिष्ट संस्कृति, भौगोलिक अलगाव, बाहरी समुदायों से संपर्क में झिझक और ‘पिछड़ापन’ शामिल है। ये सामान्य मानक 1931 की जनगणना, प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग की रिपोर्ट 1955, कालेकर सलाहकार समिति और लोकुर समिति द्वारा एससी/एसटी समीक्षा संबंधी रिपोर्ट में स्थापित हैं।
एसटी दर्जे से जुड़ी क्या है प्रक्रिया?
भारतीय संविधान की धारा 342 किसी भी समुदाय को एसटी का दर्जा दिए जाने से जुड़ी प्रक्रिया को सामने रखती है। इसमें कहा गया है कि राष्ट्रपति किसी भी राज्य की सलाह और प्रस्ताव पर उस राज्य की किसी जाति को उस समुदाय के लिए विचार कर सकते हैं। इसके लिए सबसे पहले कोई भी राज्य सरकार अपने यहां की किसी भी जाति को दर्जे को लेकर कैबिनेट में प्रस्ताव पास करती है। इस प्रस्ताव को वह भारत सरकार के आदिवासी मामलों के मंत्रालय को भेजती है। मंत्रालय इस प्रस्ताव पर सबसे पहले रजिस्ट्रार जनरल ऑफ इंडिया (आरजीआई) से मशिवरा लेता है।
आरजीआई के पास भारत की जातियों का पुराना इतिहास होता है। वह उस आधार पर जनजाति के बारे में राय देगा। वह देखता है कि यह जाति जनजातियों के लिए तय किए गए मानकों को पूरा करता है या नहीं। उसके बाद मंत्रालय एंथ्रोपोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया से राय मशविरा करेगा। यह सामाजिक पृष्ठभूमि देखता है। प्रस्ताव पर दोनों संस्थाओं से राय आने के बाद मंत्रालय यह प्रस्ताव एसटी मामलों से जुड़े राष्ट्रीय आयोग को भेजती है।
आयोग किसे भेजता है प्रस्ताव?
आयोग प्रस्ताव का गहराई से अध्ययन कर अपनी सिफारिशें केंद्र सरकार के पास भेजता है। जरूरत पड़ने पर वह प्रस्ताव में बदलाव या जोड़ घटाव भी कर सकता है। आयोग की सिफारिशों के आधार पर मंत्रालय जाति विशेष के दर्जे को लेकर संसद में संविधान संशोधन बिल पेश करता है। संसद से बिल पास होने के बाद बिल को राष्ट्रपति के पास भेजा जाता है। राष्ट्रपति की मोहर लगने के बाद कानूनी रूप से किसी जाति विशेष को एसटी का दर्जा मिलने का रास्ता साफ हो जाता है।