दरअसल, याचिकाकर्ता की ओर से सीनियर ऐडवोकेट देवदत्त कामत ने दलील दी कि पहनावे के अधिकार को सुप्रीम कोर्ट ने मौलिक अधिकार घोषित कर रखा है लिहाजा इस पर सिर्फ कुछ तार्किक प्रतिबंध ही लगाए जा सकते हैं। इस पर जस्टिस हेमंत गुप्ता और जस्टिस सुधांशु धुलिया की बेंच ने कहा कि तब तो कपड़े न पहनने का अधिकार भी फंडामेंटल राइट हो जाएगा।
बेंच ने टिप्पणी की, ‘राइट टु ड्रेस में राइट टु अनड्रेस भी शामिल होगा। मान लीजिए, अगर आप कहते हैं कि पहनावे का अधिकार मौलिक अधिकार है तब कल को कोई यह भी कहेगा कि मैं कपड़ा नहीं पहनना चाहता।’
इस पर कामत ने कहा कि वह घिसी-पिटी दलील नहीं रख रहे। स्कूल में हिजाब पहनने पर बैन का कर्नाटक सरकार का फैसला सिर्फ अनुच्छेद 19 का उल्लंघन नहीं है। ये अनुच्छेद 21 और 25 जिसके तहत पर्सनल लिबर्टी और धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी दी गई है, उसका भी उल्लंघन है।
इसी कड़ी में कामत ने दक्षिण अफ्रीका की एक संवैधानिक अदालत के फैसले का जिक्र किया जिसमें याचिकाकर्ता हिंदू लड़की को स्कूल में नथुनी पहनने की इजाजत दी गई। इस पर जस्टिस गुप्ता ने कहा, ‘मैं जितना जानता हूं, उसके हिसाब से नथुनी किसी भी धार्मिक प्रथा का हिस्सा नहीं है।’ उन्होंने कहा कि मंगलसूत्र तो (धार्मिक प्रथा का) हिस्सा है, लेकिन नथुनी नहीं।
बेंच ने कहा कि पूरी दुनिया में महिलाएं झुमके पहनती हैं, लेकिन यह धार्मिक प्रथा का मामला नहीं है। जस्टिस गुप्ता ने कहा कि मेरी धारणा है कि हमारे देश में इस तरह का विविधीकरण किसी अन्य देश में नहीं है। जब कामत ने अमेरिका के फैसलों का हवाला दिया तो बेंच ने कहा कि हम अपने देश के साथ अमेरिका और कनाडा की तुलना कैसे कर सकते हैं। ये फैसले उनके समाज के संदर्भ में दिए गए हैं।
दरअसल, मामला कर्नाटक सरकार की तरफ से शिक्षण संस्थानों में हिजाब पहनने पर बैन से लगा है। इसी साल 15 मार्च को कर्नाटक हाई कोर्ट ने राज्य सरकार के फैसले को सही ठहराया था। हाई कोर्ट के फैसले को चुनौती देती हुईं कई याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट सुनवाई कर रहा है।